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________________ धन्य-चरित्र/10 की इच्छा होती है, तो वह दुःख नष्ट हो जाता है। विराधक का पुण्य, पाप-वृद्धि का कारक होता है। जैसे विश्वभूति ब्राह्मण का हुआ। उसकी कथा इस प्रकार है: पापानुबंधी पुण्य पर विश्वभूति ब्राह्मण की कथा एक बड़े नगर में विश्वभूति नामक ब्राह्मण रहता था। उसके पूर्वकृत अज्ञान-कष्ट रूप लौकिक धर्म के फलस्वरूप पापानुबंधी पुण्य के उदय से व्यवसाय में अत्यधिक लाभ हुआ। जहाँ पाँच रूपये के लाभ का विचार करता था, वहाँ पच्चीस रूपये प्राप्त होते थे। ज्यादा क्या? हानि का विचार लाभ के लिए ही होता था। इस प्रकार अनेक व्यवसायों को करता हुआ वह लखपति बन गया था। पर स्वभाव से वह अत्यन्त कंजूस था। किसी को एक कौड़ी भी नहीं देता था। दान की बात से ही उसे गुस्सा आ जाता था। घर में भी जितना चाहिए, उससे आधा धान लाता था। स्वल्प मूल्यवाले और मोटे वस्त्र धारण करता था। घर पर प्रतिदिन तेल ही लाता था। घी तो किसी पर्व दिन पर ही लाता था और वह भी अत्यन्त थोड़ा स्पर्श-मात्र जितना ही लाता था। पुत्र-परिवार आदि द्वारा भोजन किये जाने पर उनके कवलों को गिनता था। उसके चार पुत्र थे। उनको भी अपनी आज्ञा में बाँधकर रखता था। किसी को कोई हक नहीं था। उसके कहे हुए कार्य-मात्र को करके ही रहना होता था। अगर थोड़ा भी न्यूनाधिक करते थे, तो उनको घर से निकाल देता था। कौड़ी-मात्र के लाभ के प्रयोजन के लिए सिर फोड़कर भी ग्रहण कर लेता था, पर कौड़ी-मात्र भी नहीं छोड़ता था। सुबह-सवेरे कोई भी उसका नाम नहीं लेता था। इस प्रकार कृपण शिरोमणि वह हजारों की संख्या में व्यापारों को करता था। ___ उसी नगरी में एक देवभद्र नामक श्रेष्ठी रहता था। उसके भी घर में उस विश्वभूति ब्राह्मण द्वारा हजारों की सख्या में ब्याज से धन स्थापित किया हुआ था। कितना ही समय बीत जाने के बाद एक दिन पिछली रात्रि में नींद उड़ जाने से वह ब्राह्मण अत्यधिक लोभ से व्यवसाय-जागरणा करने लगा। तब देवभद्र के घर में स्थापित द्रव्य स्मृति-पथ पर आया-"अहो! देवभद्र श्रेष्ठी के घर में अनेक हजारों प्रमाण द्रव्य मैने स्थापित कर रखा है, पर बहुत समय बीत गया। मैंने उसका हिसाब नहीं किया। चढ़ा हुआ ब्याज भी ग्रहण नहीं किया। अतः आज प्रातःकाल होने पर मुझे उसके घर जाना चाहिए। जाकर चढ़े हुए ब्याज का लेखा करके मूल द्रव्य में मिलाकर पुनः नया खाता करवाऊँगा। उसके बाद ही अन्य कार्य में प्रवृत्त होऊँगा।" इस प्रकार की लोभ-युक्त जागरणा के साथ रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर वस्त्र पहन कर चतुष्पथ पर गया। ___ तब बाजार में स्थित लोग परस्पर में बातें करने लगे-“हे अमुक! तुम्हे कौतुक दिखाता हूँ।" उसने पूछा-“कौन सा कौतुक?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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