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________________ धन्य - चरित्र / 9 हूँ। मैंने तो इस कोथली में पाषाण भरे थे । ये तो जगत के उत्तम रत्न दिखायी देते हैं ।" इस प्रकार आश्चर्य में पड़े हुए श्रेष्ठी को ईहा -अपोह द्वारा घड़ी - मात्र में ही साधु-दान स्मृति पथ पर आया । "हाँ! अब मुझे इसका रहस्य ज्ञात हुआ । इसमें मेरी, तुम्हारी, तुम्हारे पिता की अथवा अन्य किसी की महिमा नहीं है। यह सब मुनि-दान का ही प्रभाव है। हे प्रिये ! तुम्हारे द्वारा दिये गये सत्तू की थैली को लेकर मैं जा रहा था’– इत्यादि सम्पूर्ण घटना अपनी पत्नी को बतायी। फिर कहा - "हे मुग्धे ! उस दिन पारणे के अवसर पर मुनि-दर्शन होने पर जो भाव उल्लास हुआ, उस प्रकार की भावातिरेकता प्रबल निमित्त का संयोग मिलने पर भी आज से पहले कभी नहीं हुई। उस अनुभूति को या तो मैं जानता हूँ या फिर जिनेश्वर देव जानते हैं । दो-तीन बार भी अगर इस प्रकार का भाव - उल्लास और हो जाता, तो मुक्ति दुर्लभ नहीं थी। प्रिये ! अभिलाषा करता हूँ कि वह दिन बार-बार आये ।" पति की वाणी सुनकर वह भी परम आनन्द को प्राप्त हुई । उसकी भी जिन - धर्म में गाढ़ अनुरक्ति हुई । उन रत्नों की प्राप्ति से सभी सांसारिक सुख तथा धर्म वृद्धि को प्राप्त हुए । श्रेष्ठी व उसकी पत्नी आजन्म धर्म की आराधना करके श्रीमद् जिनशासन की उन्नति करके अन्त में समाधि - मरण द्वारा चौथे देवलोक में दोनों मित्र - देवों के रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर दोनों ही महाविदेह में जन्म लेकर मुक्ति को प्राप्त करेंगे। इस प्रकार आगमोक्त विधि द्वारा धर्म की आराधना करनेवालों को इस भव और पर-भव में सभी जगह प्रबल पुण्योदय प्राप्त होता है और धर्म में अविच्छिन्न मति होती है। कभी - कभी पाप के उदय से सांसारिक सुख नष्ट हो जाते हैं, क्योंकिविचित्रा कर्मणां गतिः । अर्थात् कर्मों की गति विचित्र होती है, पर फिर भी धर्म में मति का नाश नहीं होता, बल्कि धर्म की इच्छा और अधिक बढ़ जाती है । मिथ्यात्व - श्रद्धा के द्वारा अथवा निदानीकरण के द्वारा विराधित धर्म-प्रवृत्ति कर्म - निर्जरा नहीं करती, बल्कि पापानुबन्धी पुण्य होता है । वह किस प्रकार होता है ? तो कहते हैं कि उसके उदय में विषय- कषाय प्रबल होते हैं और धर्म की मति नहीं होती । जैसे-जैसे पाप का आचरण करता है, वैसे-वैसे लक्ष्मी की वृद्धि होती है । अगर सत्संगति आदि के द्वारा धर्म करने की मति उत्पन्न होती भी है, तो भी धर्म करने में समर्थ नहीं होता, बल्कि किसी भी अन्तराय के योग से संकट में पड़ जाता है। उस दुःख से पैदा हुई दानादि की मति भी नष्ट हो जाती है। यदि पुनः अधर्म
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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