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________________ धन्य-चरित्र/11 तब पहले व्यक्ति ने कहा-“देखो! यह दरिद्रता की मूर्ति-स्वरूप ब्राह्मण जाता है। बताओ कि इसके पास धन होगा या नहीं?" पहले व्यक्ति ने कहा-"इस बिचारे के पास धन कहाँ से हो सकता है? भिक्षा-वृत्ति के द्वारा कैसे भी निर्वाह करनेवाला दिखाई देता है। इसके पास धन कहाँ से आयेगा? धनिक का मुख क्या छिपा रहता है।" तब बाजार के स्वामी ने हँसकर कहा-“हे भाई! इस प्रकार के दिखनेवाले इस ब्राह्मण के पास लाखों की संख्या में विपुल धन है। इस नगर में इसके समान धनी कोई नहीं है। समस्त नगर-जन इसे पहचानते हैं, पर कोई भी शुभ कार्य में इसका नाम भी नहीं लेता। इस प्रकार का यह कृपण-शिरामणि है।" उसकी यह बात सुनकर उसे नहीं जाननेवाले लोग मुख में अंगुली डालकर सिर धुनने लगे-"अहो! इस अपरिमित धन के स्वामी का स्वरूप तो देखो। धन का क्या करेगा? इसके जन्म को धिक्कार है। इसने अपना नर-भव हार दिया है। आयुष्य पूर्ण होने पर यह तो चला जायेगा, पर इसका धन यहीं रह जायेगा। पूर्व में भी धन किसी के साथ नहीं गया, न वर्तमान में जाता है, न भविष्य मे जायेगा।" इस प्रकार बाजार में हर कोई विप्र को देखकर बातें करने लगा। पर अपने ही ध्यान मे लीन वह ब्राह्मण महानगर से देवभद्र श्रेष्ठी के घर पहुंचा। श्रेष्ठी के गृह-द्वार पर स्थित सेवकों ने उसे रोका-“हे विप्र! आप यहीं पर रुकिए। मैं अपने स्वामी को बताता हूँ।" यह कहकर सेवक ने देवभद्र के पास जाकर कहा-"स्वामी! एक दरिद्रमूर्ति ब्राह्मण आपसे मिलना चाहता है।" ___ श्रेष्ठी ने कहा-"कोई दानार्थी आशा को धारण करके आया होगा। अतः उसे जो चाहिए, वह देना चाहिए, क्योंकि सति सामर्थ्य निराशवालने महत् प्रायश्चित्तम् । अर्थात् सामर्थ्य होने पर उसे निराशापूर्वक वापस लौटाना महान प्रायश्चित्त का कारण है। स्व-शक्ति के अनुरूप उसे दूंगा। अतः मना मत करो।" । इस प्रकार स्वामी के निर्देश को प्राप्त करके उसने विप्र को कहा-"सुखपूर्वक अंदर जाओ।" विप्र ने चिन्तन किया-"किस प्रकार का व्यापारी है, जो राज-द्वार की तरह रोकता है। ये सेवक द्वार पर रहकर क्या करते हैं? इनसे तो धन का निरर्थक व्यय होता है। क्या यहाँ चोर का भय है? क्या यहाँ धाड़ पड़नेवाली है? जो कि इन्हें यहाँ स्थापित किया गया है। निश्चय ही यह अनीति के प्रवर्तन से थोड़े ही दिनों में निर्धन हो जायेगा-ऐसा दिखायी पड़ता है।" इस प्रकार विचार करते हुए वह अंदर के आस्थान में प्रविष्ट हुआ। वह आस्थान किस प्रकार का था
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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