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________________ धन्य - चरित्र / 164 गये। जिस प्रकार लोक - वार्ता सुनी थी, उससे भी कहीं ज्यादा इस नगर को देखा । तब हमारे श्वसुर ने किसी सज्जन से पूछा कि 'हे महाभाग ! यहाँ हम जैसे गरीबों के लिए क्या कोई जीने का उपाय है?' तब उसने कहा- 'यहाँ के उपनगर का धन्य नाम का स्वामी सरोवर बनवा रहा है। वहाँ जाकर सरोवर खोदने की क्रिया करो, सुखपूर्वक आजीविका प्राप्त हो जायेगी ।' यह सुनकर वहाँ जाकर सरोवर खोदने की क्रिया से अपने उदर की पूर्ति करने लगे। एक दिन धन्य स्वयं सरोवर देखने आया । " इत्यादि जो भी घटित हुआ था यावत् प्रतिदिन छाछ लाने से लगाकर आज तक का वृत्तान्त कह सुनाया। सभ्यजनों ने वह घटना जैसी सुनी, वैसी की वैसी राजा को सुना दी। राजा उस असंभावित वार्ता को सुनकर विस्मित होता हुआ मन में विचार कर ही रहा था कि पुनः वे स्त्रियाँ कहने लगी- 'हे परदुःख भंजक देव ! हे करुणानिधि! सेवक-जनों के वात्सल्य रूप आप अमृत - निर्झर के प्रवाह से वियोग अग्नि से दग्ध हमारे मनोवन को शीतल करने में समर्थ है। इस धन्य के द्वारा हमारी देवरानी के मोह के कारण हमारे श्वसुर आदि पाँचों जीव क्या पंचत्व को प्राप्त कराये गये? अथवा उस दुष्ट- बुद्धि धन्य ने उनको जीवित ही कारागार में डलवा दिया है। हे दीनोद्धारणकुशल! उनको संभालें । धन्य के द्वारा रोके गये हमारे कुटुम्ब को कृपा करके मुक्त करायें । हाथी के मुख से छुड़वाने के लिए सिंह के अलावा अन्य कौन-सा वन्य जीव समर्थ है? क्योंकि निर्धनानामनाथानां पीड़ितानां नियोगिभिः । वैरिभिश्चाभिभूतानां सर्वेषां शरणं नृपं । । अर्थात् निर्धन, अनाथ, अधिकारियों से पीड़ित तथा शत्रुओं से अभिभूत - इन सभी की एकमात्र शरण राजा ही है।" इस प्रकार उनकी पूत्कार सुनकर क्रोधित होते हुए राजा ने सेवकों के द्वारा धन्य को आज्ञा दी कि 'आप जैसे के द्वारा अन्याय करना अनुचित है । अतः सभी वैदेशिकों को छोड़ दीजिए। सज्जन होकर भी गर्व से उन्मत्त होकर क्यों सन्मार्ग का त्याग करते हैं? प्राण कण्ठ में आ जाने पर भी सज्जन अकृत्य नहीं करते हैं।' धन्य ने भी सेवक के वचन सुनकर उसको कहा - "हे प्रेष्य! मैं किसी भी प्रकार से सत्पथ का हनन नहीं करता हूँ। प्रातः काल में उगनेवाला सूर्य क्या लोकालोक का विभाग करता है? नहीं करता है। अगर कोई हेय - उत्पथादि में गिरना ही चाहे, तो रोकने में कौन प्रवीण है? चक्री का चक्र चलने पर कौन पुरुष उसके आगे आकर उसे रोकने में समर्थ होता है? अगर राजा हठ ही करना चाहते हैं, तो उनको शिक्षा देने में समर्थ हूँ। अगर यह राजा सौ सैन्य का मालिक होने से शतानीक नाम धराता है और उस कारण से गर्वित होता है, तो मैं भी लाख सैन्य का
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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