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________________ धन्य-चरित्र/163 देखकर द्वार पर स्थित पहरेदारों को इशारा करके गवाक्ष से उठकर घर के अन्दर चला गया। सन्ध्या होने पर निराश होकर बुरी अवस्था को प्राप्त होती हुई शोक से आर्त होकर खिन्न होती हुई वे अपने आवास-कुटी पर जाकर विलाप करने लगीं-'हे पृथ्वी माता! हमें आत्मसात् करने के लिए विवर बनाओ, जिससे हम दुःख-दव से पीड़ित होने के कारण भूमि में प्रवेश करेंगे। हम अबलाओं का कोई आधार नहीं है, जिसके आश्रय में हम जीयेंगे।" इस प्रकार विलाप कर-कर के भूमि पर लौटते हुए अनेक कुविकल्प से कल्पित अन्तःकरणवाली उन तीनों ने सौ रात्रियों के समान लम्बी वह एक रात व्यतीत की। किसी भी प्रकार से प्रभात होने पर तीनों परस्पर विचार करने लगीं-'हम कुल की लज्जा का त्याग करके कौशाम्बी-नरेश की सभा में जाकर गुहार करें, क्योंकि दुर्बल व अनाथों की एकमात्र गति राजा ही है।" इस प्रकार विचार करके लज्जा-रहित होकर वे शतानीक की सभा में गयीं, क्योंकि महाविपदा में शान्ति किसे रहती है? किसी को भी नहीं रहती है। तब सभा में पूत्कार करती हुई स्त्रियों को देखकर राजा ने इशारे से सभ्यों को पूछा-"ये किस दुःख के कारण पूत्कार करती है? इनसे पूछकर इनके दुःख का कारण ज्ञात करो।' तब सभ्यजनों ने उन तीनों के समीप जाकर पूछा-'आपको क्या दुःख है, क्योंकि सुहागन स्त्रियाँ महादुःख के बिना राजद्वार पर नहीं आती है। पति के विद्यमान रहने पर भी आप पर कौन-सा दुःख का पहाड़ टूट पड़ा, जिससे कि यहाँ आना पड़ा? अतः अपना दुःख विस्तारपूर्वक बताओ। दुःख की घटना राजा को निवेदन करके आपके दुःख को दूर करेंगे। हमारे स्वामी पर-दुःख भंजन में रसिक हैं। अतः उनके आगे कहकर सुनाने-मात्र से दुःख दूर हो जायेगा। तब उन्होंने कहा-'स्वामी! हम परदेशी हैं। पहले तो हमारे घर में अतुल्य सुख था, पर भाग्य से इस प्रकार की दुरावस्था को प्राप्त हो गये, क्योंकि कर्म की गति न्यारी है। कहा भी है अघटितघटितानि घटयति घटितानि जर्जरीकुरुते। विधिरेव तानि घटयति यानि पुमान्नैव चिन्तयति।। अर्थात् अघटित घटितों को घटाता है, घटितों को जर्जर करता है। विधि वैसा घटित करती है, जिसके बारे में पुरुष सोचता भी नहीं है। अतः हमारे ससुर आठ पारिवारिक जनों के साथ अपने घर से निकले। ग्राम-ग्राम में घूमते हुए आपके नगर की ख्याति सुनी-'वत्स के राजा प्रजा की वत्स की तरह रक्षा करते हैं। जो कोई निर्धन है, उनके जीवन-यापन के उपयोग की बहुलतावाला देश है। जहाँ देशान्तर से आये हुए भी सुखपूर्वक आजीविका का निर्वाह करते हैं। जहाँ अत्यधिक सभिक्ष-काल वर्तता है।" इस प्रकार लोगों के मुख से जाकर हमारे श्वसुर कुटुम्ब सहित यहाँ आ
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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