SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/165 जेता लक्षानीक हूँ। मेरे सामने शतानीक कितना-मात्र है?' इस प्रकार धन्य के मुख से गर्वयुक्त ऐसे कठोर वचनों को सुनकर वह पुरुष शीघ्र ही राजा के पास गया, नमन करके सम्पूर्ण घटना निवेदन की। राजा भी धन्य की गर्वोक्ति सुनकर क्रुद्ध हो गया। प्रेम का स्थान वैर ने ले लिया। अब शतानीक ने युद्ध करने को उद्यत अपनी सेना को धन्य के महल की ओर भेजा। धन्य ने भी राजा के सैन्य के आगमन को जानकर अपना हस्ति-सैन्य, अश्व-सैन्य, पादातिक-सैन्य आदि भेजकर शतानीक के सैन्य के साथ तुमुल युद्ध का आह्वान किया। उन दोनों के युद्ध में लग जाने पर मुहूर्त-मात्र में ही गरजते हुए गज, तुरंग आदिवाले शतानीक के सैन्य को धन्य ने नदी के पूर को पर्वत द्वारा रोकने की तरह पराङ्मुख कर दिया। वे सभी सैनिक कौए के गर्व की तरह नष्ट हो गये। तब अपने सैन्य को दीन भाव से आपन्न देखकर शतानीक बलवान सैन्य से युक्त होकर गर्वयुक्त होकर स्वयं धन्य को जीतने के लिए चला। धन्य को इसकी जानकारी मिलने पर अपने घर की रक्षा के लिए विशिष्ट बंदोबस्त करके अपने सैन्य को लेकर शतानीक के सम्मुख रवाना हुआ। क्रमपूर्वक दोनों का मिलन हुआ और युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों को परस्पर युद्ध में संलग्न देखकर किंतकर्त्तव्यमूढ़ होते हुए अमात्य-गण परस्पर विचार करने लगे-“इन श्वसुर-जामाता का युद्ध होने पर कुछ भी बड़ा अनर्थ हो सकता है। तब जगत में हमारी बहुत मान-हानि/अप्रतिष्ठा होगी कि 'इन दोनों के सैन्य में कोई भी सुबुद्धि देनेवाला कुशल सन्धि-मेलापक नहीं था, जिससे कि इस प्रकार के अनर्थ को रोकने से रोक सकता था। अतः राजा के पास जाकर किसी भी प्रकार से हितोपदेश का निवेदन करना चाहिए।' इस प्रकार विचार करके वे सभी मन्त्री इकट्ठे होकर राजा के पास जाकर कहने लगे-“स्वामी! चित्त को स्थिर करके हमारी विज्ञप्ति को धारण कीजिए। बाद में जो उचित हो, वह कीजिएगा।' राजा ने कहा-"तो आपका विचारा हुआ कह डालिए। राजा के आदेश को प्राप्त करके वे सभी कहने लगे-“देव! गरीब के लिए सेवक-युद्ध के द्वारा अपनी प्रतिष्ठा का त्याग न करें। नीति में भी कहा गया है कि पाप-बहुल का पक्ष नहीं लेना चाहिए। पाप के उदय से पाप-बहुल का पक्ष लेनेवाला भी दुःख पाता है। और भी, यह धन्य आपका जामाता है, पूज्य स्थानवर्ती होने से इसका हनन नहीं करना चाहिए। जैसे-गाय के द्वारा खाया हुआ रत्न क्या उसके उदर को फाड़कर निकाला जाता है? अतः इसका छेदन करना युक्त नहीं है, क्योंकि चतुर पुरुष के द्वारा रोपित वृक्ष यदि विष का भी है, तो स्वयं द्वारा उसका छेदन करना युक्तियुक्त नहीं है। हे नाथ! इसी कारण से ठीकरी को पाने की आकांक्षा से काम-कुंभ को फोड़ने के समान आपके द्वारा रण करना शोभाजनक नहीं है। ऐसा कौन होगा कि अपने कुटुम्ब पर प्रहार करने के लिए हाथ में लाठी को धारण करे?
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy