SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य - चरित्र / 162 अचानक घर के भीतर आकर पिता को प्रणाम किया । नमन करके आदरपूर्वक हाथों की अंजलि बनाकर इस प्रकार कहा - "तात - चरण में जो कुछ भी बाल - चापल्यता के वश होकर किया, उसकी क्षमा चाहता हूँ। अमृत का अनुसरण करनेवाली धन्य की वाणी सुनकर धनसार पुत्र के दर्शन से अनचाहे मनोरथ को प्राप्त करके अद्भुत आनन्द से आक्रान्त हो गया । अतः यह अर्थ युक्त ही है कि समुद्र चन्द्र के दर्शन से ऊँची कल्लोलवाला क्यों न हो? होता ही है। तब बहुमान व भक्तिपूर्वक समस्त दुःखों से रहित पिता को आवास के अन्दर ले जाकर गम्भीर बनकर धन्य पुनः वातायन में जाकर बैठ गया और बाहर देखने लगा । तभी दुःख से आक्रान्त धन्य की माता अपने पति को खोजती हुई धन्य के घर में आयी । धन्य को गवाक्ष में बैठे हुए देखकर विषादपूर्ण हृदय से बोली- 'हे कठोर हृदयी! मेरी पवित्र आचारवाली बहू को यदि नहीं छोड़ते हो, तो उसके साथ धूलि की तरह तुम दूर से ही गर्त में गिरो । अथवा कुपित होकर तुम क्या कर लोगे? बस, जरा से जर्जर मेरे पति को लौटा दो। उसकी पीठ पर धूलि डालकर हम दूर चले जायेंगे । जिसने कुल - लज्जा का त्याग कर दिया, उससे मुझे कोई काम नहीं है। तुम दोनों द्वारा किया गया पाप तुम दोनों को ही नचायेगा ।" इस प्रकार माता ने दुःखपूर्वक धन्य को कहा, तब धन्य ने पूर्व के समान सेवकों द्वारा अपने घर ले जाकर पीछे स्वयं जाकर माता के चरण-चुगल में नमन किया और स्वयं को प्रकट किया। वह भी अपने पुत्र धन्य को जानकर खुश हो गयी । धन्य ने भी बहुमानपूर्वक अंग वस्त्र आदि शुश्रूषा करके घर में बिठाया । - पुनः धन्य जाकर गवाक्ष में बैठ गया। तीनों भाई भी माता-पिता को खोजते वहाँ आये | आयुष्मान धन्य ने उनको इधर-उधर घूमते हुए देखकर सेवकों द्वारा आवास में बुलवाया। स्वयं वहाँ जाकर शीघ्र ही चरणों में प्रणाम किया। फिर वस्त्र, आभरण, ताम्बूल आदि द्वारा सत्कार करके देह के अन्दर सद्गुणों की तरह अपने घर के भीतर स्थापित किया और वे प्रमोद को प्राप्त हुए । सास उसके बाद बहुत समय बीत जाने के बाद उन तीनों भाइयों की पत्नियों को - श्वसुर तथा पतियों की खोज के लिए आते हुए धन्य ने दूर से ही देखा । देखकर विचार किया- 'इन लोगों ने मेरी निर्दोष प्रियतमा पर मिथ्या दोष प्रकट करके उसकी अत्यधिक निन्दा की। बहुत से दुर्वचनों द्वारा उसकी हीलना की, उसे संताप पहुँचाया। अतः इन्हें कुछ तो शिक्षा देनी ही चाहिए ।" इस प्रकार निश्चय करके भ्रू के इशारे से द्वारपालों को उन तीनों के प्रवेश का निषेध करने को कहा। पर्वत के द्वारा रोका गया नदी का पानी जैसे चारों ओर घूमता है, वैसे ही वे भी राजद्वार के बाहर इधर-उधर घूमने लगीं । सन्ध्या तक वे घूमती रहीं, पर आवास के अन्दर प्रवेश करने में वे समर्थ नहीं हुई । धन्य भी दूर से
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy