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________________ धन्य-चरित्र/157 उतरवाकर, स्नान-मज्जन आदि करवाकर, विविध देशों से आये हए कोमल-झीणे वस्त्र पहनाकर, विविध मणि-सुवर्ण से जटित आभरणों द्वारा अलंकृत करके भद्रासन पर बिठाया। तब वह सम्पूर्ण चन्द्र से युक्त यामिनी की तरह गृह-स्वामिनी के रूप में शोभित होने लगी। बहुत समय बीत जाने के बाद धनसार पत्नी के साथ चिन्ता करने लगा-"पहले तो सुभद्रा निमेष-अर्ध-मात्र भी घर से बाहर नहीं रुकती थी। आज किस कारण से वह अभी तक नहीं आयी? उत्तम कुल में उत्पन्न हुई नारी पति के घर को छोड़कर क्षण-मात्र भी कहीं नहीं ठहरती। और भी, पृथ्वी पर जंगम कल्प वृक्ष के तुल्य श्री धन्य राजा प्राणान्त होने पर भी धर्म का उल्लंघन नहीं कर सकता। सोने में कभी भी कालापन नहीं आ सकता। पर बड़े लोगों की मनोवृत्ति विषम होती है। उनके मन के भावों को जानना दुस्तर है। निपुण व्यक्ति भी ग्रथिल हो जाता है। सज्जन भी दुर्जन हो जाता है, क्योंकि कहा भी है निर्दयः कामचण्डालः पण्डितानपि पीड़येत्। अर्थात् काम चण्डाल निर्दय है, वह पण्डितों को भी पीड़ित करता है। यद्यपि धन्य भले ही दुष्ट हो जाये, पर सुभद्रा कभी भी व्रत का त्याग नहीं करेगी। पर क्या पता? जबर्दस्ती रोक ली गयी हो अथवा दोनों के चित्त की प्रवृत्ति नष्ट हो गयी हो। पर हवा से आन्दोलित क्षीण ज्योति की तरह कुछ तो विपरीत हुआ इस प्रकार शंका के तीर से भिदे हुए श्रेष्ठी ने बड़ी पुत्रवधू से कहा-'हे वत्से! तुम उसके घर जाकर देखो कि वह किस कारण से रोकी हुई है?" तब धनदत्त की पत्नी छाछ का बर्तन लेकर धन्य के घर के आँगन जाकर वहाँ के मनुष्यों से पूछने लगी कि 'हमारी देवरानी छाछ के लिए घर से निकली थी। यहाँ आयी है या नहीं?" __इस प्रकार के छिपे रहस्य को नहीं जानते हुए उन्होंने भी कहा-'अहो! उसका तो महान भाग्योदय हुआ। घर के मध्य भाग में जाकर देखो, वह तो गृह-स्वामिनी की तरह बैठी हुई है।" यह सुनकर चिन्ता, आर्ति, भय, विस्मय आदि से मिश्रित अन्तःकरणवाली वह पूर्वगमन के अभ्यास से आवास के अन्दर चली गयी। दूर से ही उसकी उस अपूर्व अवस्था को देखकर शीघ्र ही वापस लौट गयी। अपने स्थान पर आकर सभी के सामने जो देखा था, वह कह सुनाया। वे सभी धनसार को उपालम्भ देने लगे-'अहो! इसमें आपका ही दोष है, क्योंकि दही-दूध आदि के लोभ में प्रतिदिन उसको ही भेजा। अन्य तो स्वच्छ जल के समान छाछ लाती थीं। अतः निर्भागिनी तथा मूर्ख थीं। यह मेरी पुत्रवधू पुण्यवती, दक्षा, भाग्यशालिनी है, जो कितना भव्य-भव्यतर लाती है। पर कभी विचार नहीं
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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