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________________ धन्य-चरित्र/156 विशुद्धता देखकर केवली की तरह वह धन्य अनिर्वाच्य अनंत आनन्द को प्राप्त हुआ। तब अतिशय हर्ष से युक्त उस धन्य ने सुधारस युक्त वाणी में सुभद्रा को कहा-'हे भद्रे! मैं पर-स्त्री लोलुप नहीं हूँ। अतः मुझसे मत डरो। ये जो गोल-गोल बातें कीं, वे सभी वचन–मात्र थीं। मैं तो तुम्हारे सत्व की परीक्षा कर रहा था। मैंने जो कुछ भी विरुद्ध वचन कहे हैं, उसके लिए मैं तुमसे क्षमा याचना करता हूँ। तुम धन्य हो, जो कि इस कठिन समय में भी अपने व्रत की अखंडता रखा करती हो। पर तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि तुम अपने पति को कैसे जानोगी? दृष्टि-पथ पर आने-मात्र से, किसी संकेत से, एकान्त में की गयी वार्ता के कथन से या अंग-प्रत्यंग में रहे हुए मश, तिलक, आवर्त आदि लांछन को देखकर पहचानोगी?" इस प्रकार के धन्य के वचन सुनकर वह बोली-'जो मेरे घर में हुए, पर से अज्ञात, पूर्व में अनुभूत स्पष्ट संकेतों को बताता है, वही मेरा पति है। इसमें कोई संदेह नहीं। तब धन्य ने कहा-'एक मेरा कथन सुनो-दक्षिण दिशा में प्रतिष्ठानपुर से धनसार व्यापारी का धन्य नाम का पुत्र अपने तीनों भाइयों के द्वारा कृत क्लेश से उद्विग्न चित्तवाला होकर देशान्तर को चला गया। लक्ष्मी का उपार्जन और त्याग करते हुए राजगृह नगर को प्राप्त होकर वहाँ अपने पुण्य की प्रबलता के उदय से तीन कन्याओं के साथ परिणय सम्बन्ध बनाया। वाणिज्य कला-कौशल के बल से अनेक कोटि स्वर्ण का उपार्जन किया। इस प्रकार कितना ही काल बीत जाने के बाद रात्रि में मुरझाये हुए सूर्यमुखी पुष्पों के समान श्री-रहित भाइयों को देखने मात्र से सूर्य की तरह निर्विकार होकर उनको लक्ष्मीयुक्त बनाया। पुनः वहाँ भी कुटुम्ब-क्लेश देखकर भग्नचित्त होता हुआ बादलों को देखकर कलहंस के मानसरोवर में आने की तरह यहाँ पद्माकर पुर में अर्थात् लक्ष्मी के आकर रूप इस नगर में अथवा तो मानसरोवर के पक्ष में कमलों के आकर रूप इस नगर में आ गया। मेरे द्वारा कथित व्यतिकर सत्य है या नहीं?" तब वह विदुषी संपूर्ण रूप से सर्व अभिज्ञान के कथन से अपने प्रिय को जानकर लज्जा से मौन होकर अधोमुखी हो गयी, क्योंकि पतिव्रता स्त्रियों की यही स्थिति होती है। सौभाग्यमंजरी भी अपने पति की जन्म से लगाकर अब तक की घटना को सुनकर तथा सुभद्रा के साथ सौत के सम्बन्ध को जानकर चित्त में चमत्कृत हो गयी। विचार करने लगी कि आज मेरा सन्देह दूर हुआ कि पर-नारी के सहोदर मेरे पति क्यों इसे सादर दही-दूध आदि दिलवाते थे? सहेली बनाने की क्यों आज्ञा देते थे? आज सब कुछ सही-सही ज्ञात हुआ। महान जनों का अपनी पत्नी पर इस तरह का प्रेम होता ही है, कुछ भी अयुक्त नहीं है।' तब दम्पति ने सखियों द्वारा सुभद्रा के पुराने वस्त्र तथा खोटे आभरण
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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