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________________ धन्य-चरित्र/158 किया कि कर्मकर की बहू को अति आदरपूर्वक दही-दूध-सुखभक्षिका आदि किस कारण से देता है? हमारा कोई भी पूर्व-परिचय भी नहीं है। न ही कोई सम्बन्ध है, न ही हमारे अधीन कोई काम आदि का करना है। वृद्धत्व की अनुकम्पा से देता है, तो अन्य भी बहुओं को देना चाहिए था। पर उनको तो नहीं ही देता था, इसी को भव्य देता था। अतः सूक्ष्म व निपुण बुद्धि से विचार करना चाहिए था कि कोई कारण अवश्य है। अगर पहले से ही मन में सोच-समझकर यथायोग्य किया होता, तो इस प्रकार की विषम अवस्था नहीं होती। इतना तो सभी जानते हैं कि रूप-यौवन से युक्त स्त्रियों का राजकुल में गमनागमन युक्त नहीं है। 'अतिपरिचयादवज्ञा अर्थात् अति परिचय से अवज्ञा होती है, यह लोकोक्ति भी आपने मन में धारण नहीं की। अतः आपकी ही मूर्खता है।" पुत्रों आदि के इस प्रकार उपालम्भों को सुनकर वज्र के घात से आहत के समान धनसार पृथ्वी पर गिर गया। कितने ही समय बाद चैतन्य होते हुए निःश्वास सहित शिर को हिलाते हुए कहने लगा-'हा दैव! शील का नाश करनेवाली इसने कैसे निष्कलंक वंश को कलंकित किया? एक तो विदेश में घूमना, दूसरी निर्धनता-जिससे कोई भी वचन मात्र सुनने को भी तैयार नहीं है। तीसरी बात यह है कि जले पर नमक छिड़कने के तुल्य जन-निन्दा क्षार के तुत्य है। इन तीनों अग्नियों को कैसे सहन करूँ? गरीबी का दुःख इतनी पीड़ा नहीं दे रहा, जितना कि इस दुराचारिणी द्वारा किया हुआ पीड़ा दे रहा है। तुम ऐसी हो जाओगी, यह तो मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। हा! तुमने क्या किया? मेरे बुढ़ापे में श्वेत हुए केशों पर धूलि डाल दी। इस प्रकार धनसार के विलाप करने पर बड़ी बहू ईर्ष्या से कहने लगी-'यह है आपकी निपुणा, भाग्यवती, विनयवती बहू, जिसके प्रतिदिन सैकड़ों व्याख्यान करते हुए और अन्य की निन्दा करते हुए आपकी जिह्वा सूख गयी। उसने तो अपनी निपुणता प्रकट कर दी। अपने आप को सुख-विलास में स्थापित कर दिया। अब शोक करने से क्या फायदा? हम तो मूर्खाएँ, भाग्यहीना, निर्गुणा हैं। हममें से किसी को भी इस प्रकार करना नहीं आया। अतः दुःख से उदर पूर्ति करते हुए घर में ही बैठी रह गयीं और वह तो गुणों की अधिकता से राजपत्नी बनकर बैठ गयी।" । इस प्रकार जले पर नमक के समान बहू के वचनों को सुनकर जलते हुए अन्तःकरण से किंकर्त्तव्यमूढ़ होकर वृद्ध विचार करने लगा-'अब कहाँ जाऊँ? किसको पूर्वी? क्या करूँ? किसको कहूँ? किसका साथ करूँ? निर्धन मैं किसको अपने पक्ष में करूँ?" इस प्रकार दिशामूढ़ होकर शून्य चित्त बैठा था, तभी उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मेरा पक्ष लेनेवाले मेरे कोई सम्बन्धी यहाँ नहीं है, फिर भी मेरी जाति के व्यापारी तो यहाँ बहुत है। उनके आगे जाकर कहता हूँ। वे भी स्व-जाति के
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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