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________________ धन्य-चरित्र/139 से युक्त वाहनों पर आरूढ़ करके तथा माता आदि को रथों में आरूढ़ करके महोत्सवपूर्वक नगर में प्रवेश कराया, क्योंकि चातुर्याग्रणी पुमान् औचित्यं न हि परिमुञ्चति। __ अर्थात् चतुरता में अग्रणी पुरुष उचितता का त्याग नहीं करता। फिर पिता को अपने घर का नायक बनाकर लक्ष्मी से अभिराम ग्राम अपने बान्धवों को देकर भक्ति और प्रीति का प्रदर्शन किया। मनस्विनां हि या लक्ष्मीबन्धुभोग्या भवति सैव श्लाघनीया भवति। अर्थात् मनस्वी लोगों की जो लक्ष्मी बन्धुओं के भोग के लिए होती है, वही श्लाघनीय होती है। कहा भी है किं तया हि महाबाहो! कालान्तरगतश्रिया। बन्धुभिर्या न भुज्येत अरिभिर्या न दृश्यते।। अर्थात् हे महाभुजाधारी! कालान्तर में गयी हुई तुम्हारी श्री किस काम की? जिसे न तो बन्धुओं ने भोगा, न ही शत्रुओं ने देखा। इस प्रकार धन्य ने अपने तीनों ही अग्रजों का धन आदि से सत्कार किया, फिर भी वे कुबुद्धि युक्त होकर हर्ष के स्थान पर दुःखित ही होते थे, क्योंकि नीति-शास्त्रों में भी कहा है खलजनो बहुमानादिना सक्रियमाणोऽपि सतां कलहमेव ददाति, यथा दुग्धधौतोऽपि वायसः किं कलहंसता प्राप्नोति? __ अर्थात् दुष्ट जन बहुमान आदि से सत्कार किये जाने पर भी सज्जनों को क्लेश ही देते हैं, जैसे कि क्या दूध से धोये हुए कौए हंस की सुन्दरता को प्राप्त करते हैं? अर्थात् नहीं ही प्राप्त करते हैं। वह कृपालुओं में उत्तम धन्य भी ईर्ष्यालु, वाणी से शुष्क तालुवाले, द्वेषी अपने भाइयों को देखकर विचार करने लगा-जिस कारण से बन्धुओं के मन में अत्यधिक मलिनता आ गयी है, वह सम्पत्ति भी सज्जनों के लिए विपदा को लानेवाली है। अतः इस सम्पदा का त्याग करके पहले की तरह देशान्तर को चला जाता हूँ, जिससे इच्छित की प्राप्ति होने से मेरे सहोदर तुष्ट हो जायेंगे।" ___ इस प्रकार विचार करके धन आदि से भरे हुए घर तथा तीन प्रियाओं को छोड़कर एकमात्र चिन्तामणि रत्न लेकर राजा आदि को बिना पूछे गुप्त रूप से अवसर पाकर वह नगर से बाहर निकल गया। तब वह पुण्यवान धन्य मार्ग में भी चिन्तामणि रत्न के प्रभाव से अपने घर के सुखों के समान इप्सित सुखों को भोगते हुए, सुखपूर्वक रास्ता तय करते हुए बहुत से ग्राम-नगर-उद्यान आदि को देखता हुआ आर्य द्वारा तिर्यंच भव का अतिक्रमण करके मनुष्य गति को प्राप्त करने की तरह कौशाम्बी पुरी को प्राप्त हुआ। उस कौशाम्बी नगरी में समस्त क्षत्रियों का शिरोरत्न शतानीक नाम का राजा राज्य करता
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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