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________________ धन्य-चरित्र/138 थोड़े से पुण्यों के अवशेष रहने से तुम्हारे दर्शन हो गये। दुर्दशा नष्ट हो गयी। तात के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पवित्रात्मा धन्य अपने चित्त में उनके दुःख के प्रतिबिम्बित होने से दुःखी हो उठा, क्योंकि सज्जनों का ऐसा ही स्वभाव होता है। कहा भी है सज्जनस्य हृदयं नवनीतं यद्वदन्ति कवयस्तदलीकम् । अस्य देहविलसत्परितापात् सज्जनो द्रवति नो नवनीतम् ।। अर्थात् सज्जनों का हृदय नवनीत होता है-ऐसा जो कवि कहते हैं, वे झूठ कहते हैं, क्योंकि शरीर के भीतर होनेवाले दुःख के परिताप से सज्जन तो पिघल जाते हैं, पर नवनीत नहीं। फिर धन्य ने विचार किया-“ये मेरे पिता आदि इस प्रकार के भिखारियों जैसे वेश में आये हुए घर में प्रवेश करने के लिए युक्त नहीं है, क्योंकि घर में रहे हुए कर्मकर मनुष्य भी इनका बहुमान नहीं करेंगे। लोक में भी प्रचलित है वेषाडम्बरहीनानां महतामपि अवज्ञा भवति। अर्थात् वेष के आडम्बर से हीन महान व्यक्ति की भी अवज्ञा होती है। मृगचर्म को धारण करनेवाले शंकर के मस्तक पर क्या चन्द्रमा आधा नहीं हुआ? अतः महा-इभ्यों में ये लोग अभी लघुता को प्राप्त न हो जायें, यहाँ भी किसी को ज्ञात न हो, इस प्रकार गुप्त रीति से नगर के बाहर की वाटिका में भेज देता हूँ। फिर वेष आदि का महा-आडम्बर करवाकर महा-महोत्सव के साथ यहाँ लाऊँगा।" इस प्रकार विचार करके धन्य ने वस्त्र-आभूषण आदि देकर रथादि में छिपाकर उनको बाहर भेजा। फिर नगर के बाहर की वाटिका में ले जाकर सुगन्धित तेल आदि से मालिश करवाकर, स्नान आदि करवाकर, वस्त्र-आभूषण आदि से भूषित करके, विशिष्ट सुखासनों पर उनको बैठाया। तब पूर्व संकेतित पुरुषों ने आकर धन्य को बधाई दी-'स्वामी! नगर के उपवन में आपके पूज्यपाद पिता आदि आकर ठहरे हुए हैं। तब उन पुरुषों को हर्ष-बधाई देकर घोड़े, रथ, भट आदि से युक्त होकर अनेक महा-इभ्यों के साथ नगर के उपवन में गया। दूर से ही पिता के दर्शन होने पर वाहन से उतरकर पिता के चरण-कमल में नमन करके कहा 'आज मेरा दिन सफल हुआ। आज मेरी क्रिया सफल हुई। आज मेरा धन सफल हुआ। आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज मुझे पिता श्री के चरण-दर्शन का लाभ मिला। इस प्रकार सम्यक् शिष्टाचारपूर्वक माता-पिता तथा बड़े भाइयों को नमन करके कुशल वार्ता पूछकर अपनी सज्जनता, सुपुत्रता तथा विनीतता प्रदर्शित की। पिता ने भी हर्ष के उत्कर्षपूर्वक धन्य तथा महा-इभ्यों को आलिंगन करके कुशल वार्ता पूछी। फिर धन्य ने पिता तथा भ्राता आदि को सुखासनों से युक्त घोड़े आदि
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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