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________________ धन्य-चरित्र/137 खेलता था। यह सब मुनि को पूर्व भव में भक्तिपूर्वक दिये गये दान का फल प्रकट हुआ था। अतः हे भव्यों! निदान रहित भाव-दान में अत्यधिक आदर करना चाहिए। ।। इस प्रकार तपागच्छ के अधिराज श्री सोमसुन्दर सूरि के पट्ट प्रभाकर शिष्य श्री जिनकीर्ति सूरि द्वारा विरचित्त पद्यबन्ध धन्य-चरित्रवाला श्री दानकल्पद्रुम का महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि के अन्वय में महोपाध्याय श्री हर्षसागर गणि के प्रपौत्र महोपाध्याय श्री ज्ञानसागर गणि शिष्य की अल्प मति द्वारा गूंथित गद्य-रचनाप्रबन्ध में कन्यात्रयपरिणय नामक पाँचवाँ पल्लव पूर्ण हुआ।। छट्ठा पल्लव लक्ष्मी रूपी वधू की क्रीड़ा के स्थान रूपी इसी राजगृह नगर में किसी समय धन्य अपने सप्तमंजिले आवास की ऊपरी भूमि में क्रीड़ा के द्वारा यथेच्छित हास्य-विनोद आदि सुखों का अनुभव करता था। उस समय इधर-उधर देखते हुए चतुष्पथ की ओर उसकी दृष्टि गयी। तब अत्यन्त दीन दशा को प्राप्त, वनचर के तुल्य, भिखारियों के समान, घृणायुक्त गली में, फटे हुए वस्त्रों के चीथड़ों से युक्त माता-पिता-भ्राता आदि को इधर-उधर घूमते हुए देखकर विस्मित चित्त से विचार करने लगा-अहो! कर्मों की कैसी गति है? जो कि मैं अपने इस कुटुम्ब को अनेक कोटि द्रव्य-धान्य आदि से भरे हुए घर में छोड़कर आया था। पर बाद में ये सारे धन-धान्य आदि नष्ट हो गये दिखाई देते हैं, जिससे कि ये इस प्रकार की दुर्दशा को प्राप्त होकर घूमते हुए यहाँ आ गये हैं। अतः जिन-वचन सत्य ही हैं, कि कडाण कम्माण न मुक्खमत्थि। अर्थात् किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। इस प्रकार विचार करके सेवकों द्वारा उनको बुलवाकर और प्रणाम करके विनयपूर्वक माता-पिता को स्वच्छ चित्त से अंजलिपूर्वक पूछा-“हे तात! बहुत लक्ष्मीवाले आपकी ऐसी गरीबी की हालत कैसे हुई? क्योंकि छाया के आश्रय में रहनेवालों को कभी भी ताप की पीड़ा नहीं होती। इस प्रकार के धन्य के वचनों को सुनकर धनसार ने कहा-'हे वत्स! तुम्हारे पुण्य से आयी हुई लक्ष्मी घर से तुम्हारे साथ ही चली गयी, जैसे कि अति स्फुट भी चेतना देह से जीव के साथ ही जाती है। कुछ धन चोरों ने चुरा लिया। कुछ धन अग्नि के द्वारा भस्म कर दिया गया। कुछ जल में डूब गया। भूमिगत धन अदृश्य होकर कोयलों में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार सम्पूर्ण धन नष्ट हो गया। तुम्हारे द्वारा दी गयी प्रभूत सम्पत्ति भी प्रचण्ड वायु से मेघ घटा की तरह क्षय को प्राप्त हुई, जिससे अपने उदर की पूर्ति भी असम्भव हो गयी। तब नगर से निकलकर ग्रामानुग्राम घूमते हुए “राजगृह महानगर है' ऐसा सुनकर यहाँ आये। पहले किये हुए
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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