SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य - चरित्र / 3 पुण्यानुबंधी पुण्य पर गुणसार श्रेष्ठी की कथा एक नगर में व्यवहार कुशल, प्रबल धन-धान्य आदि से युक्त, आढ्य, दीप्त, अपरिभूत गुणसार नामक श्रेष्ठी रहता था। एक बार किसी अवसर पर उसे सद्गुरु का योग मिला, तो उसने नमस्कार आदि किया। करुणाशील गुरु ने भी उसे धर्म - लाभ के दान-‍ न-पूर्वक जीव - अजीव आदि नौ पदार्थों के तत्त्व-रूप को उद्भासित करनेवाले मर्म—युक्त धर्म का कथन किया । उसने भी रसिक रूप से उत्साह - पूर्वक अपने चित्त में धारण किया । अपूर्व लाभ से हर्षित होते हुए सम्यक्त्व ग्रहण करके गृहस्थ-धर्म अंगीकार किया। उसके प्रतिदिन एकान्तर उपवास का तथा संयोग मिलने पर सुपात्र - दान का अभिग्रह किया । इस प्रकार कितने ही दिनों तक गुरु की सन्निधि के योग से वह धर्म में कुशल हो गया । परिणाम की वृद्धि के साथ वह धर्म का निर्वाह करने लगा। इस प्रकार कितना ही काल व्यतीत हो गया । एक बार उसके पूर्वबद्ध निकाचित कर्मों के कारण पाप का उदय होने से धन-धान्य आदि का नाश हो गया, पर उसने अपने धर्म के अभिग्रह को नहीं छोड़ा। अत्यधिक दरिद्री हो जाने के कारण उदरर - पूर्ति भी बड़े ही कष्ट से होती थी, क्योंकि धन के चले जाने पर कोई भी सहायक नहीं होता । तब उसकी पत्नी ने उससे कहा - "स्वामी! सब कुछ चला गया। धन के बिना कोई उद्यम नहीं होगा । दरिद्रावस्था में कौन धन देगा? अतः आप मेरे पिता के घर जायें। मेरे पिता का मुझ पर बहुत स्नेह है। अतः आपको देखते ही धन दे देंगे। उससे हमारे घर का निर्वाह हो जायेगा। दूसरा कोई उपाय नहीं है।" प्रतिदिन अपनी पत्नी द्वारा प्रेरित किये जाने पर उसने अपनी पत्नी से कहा - "हे प्रिये ! दुःखी अवस्था में वहाँ जाना ठीक नहीं है, फिर भी तुम्हारे कहने से चला जाता हूँ।” तब पत्नी ने सोचा कि ढाई दिन का मार्ग है । एक दिन का उपवास रहेगा। दूसरे दिन पथ में खाने के लिए पारणे के योग्य सत्तू, गुड़-खण्ड आदि एक थैली में डालकर दे दिया। प्रभात में भोजन करके वह मार्ग पर चला गया। संध्या के समय एक ग्राम में रात्रि बिताकर प्रभात में पुनः उपवास करके आगे बढ़ा। संध्या के समय पुनः एक गाँव में जाकर, वहाँ रात्रि व्यतीत करके दूसरे दिन मध्याह्न होने पर नदी के किनारे पर पारणा करने के लिए बैठा। उस समय उसने विचार किया कि "वे धन्य हैं! जो कि प्रतिदिन मुनि को दान दिये बिना भोजन ग्रहण नहीं करते हैं । मेरे तो पाप का उदय होने से ऐसा योग कहाँ! कदाचित ऐसा योग मिल जाये, तो अति भव्य संयोग होगा ।" इस प्रकार विचार करते हुए दिशाओं का अवलोकन करते हुए रुक गया । इसी अवसर पर एक मासक्षमण तप के तपस्वी मुनि पारणे के लिए गाँव में गये थे। वहाँ शुद्ध जल तो मिल गया, पर दूषण की आंशका से आहार ग्रहण नहीं
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy