SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/2 इसी प्रकार दान तप-धर्म में भी अंतर्भावित हो जाता है, क्योंकि छ:काय के जीवों की विराधना से ही भोजन निष्पादित होता है। उपवास आदि करने पर उन जीवों को अभयदान मिलता है। अतः तप में भी दान की ही मुख्यता है। भाव धर्म में भी इसका अच्छी तरह से समावेश हो जाता है, क्योंकि परम करुणा द्वारा जीव-अजीव की अहिंसक परिणति का भाव पैदा होता है और वह अभयदान ही है। मुनि भी प्रतिदिन ज्ञान-दान, देशना-दान, शिक्षा-दान आदि देते हैं। उत्कृष्ट अभयदान व सुपात्रदान से तीर्थकर नामकर्म का बंध होता है। लौकिक जनों में सर्वत्र दान सफल होता है। सुपात्र को दिया गया दान महापुण्य का कारण होता है। दूसरों को अनुकम्पा भाव से दिया गया दान प्रौढ़ दया का पोषक होता है। राजा को दिया गया दान सम्मान आदि महत्व को प्राप्त करानेवाला होता है। नौकरों-चाकरों को दिया गया दान उनमें भक्ति की अधिकता को पैदा करता है। स्वजनों को दिया गया दान प्रेम-अभिवृद्धि का पोषक होता है। दुर्जनों को दान देने से वे अनुकूल हो जाते हैं। अतः दान सभी जगह सफल है, कहीं भी निष्फल नहीं है। समस्त शास्त्रों में दान का फल प्रतिपादित है। जैसे विभवो वैभवं भोगा महिमाऽथ महोदयः । दानपुण्यस्य कल्पद्रोरनल्पोऽयं फलोदयः ।। (दान कल्पद्रुम) विभव का अर्थ राज्य ऋद्धि, समृद्धि आदि को अपनी इच्छा द्वारा भोगना। भोक्तृत्व का मतलब है-मन के अनुकूल शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श रूप भोगों को भोगना। महिमा अर्थात् सर्वत्र स्व-पर आदि देशों में विख्याति रूपी यश होता है। महोदय का अर्थ अपने मन में चिन्तित अर्थ की प्राप्ति है। ये सभी पूर्व में कहे गये दान-पुण्य रूपी कल्प-वृक्ष के फल रूपी उदय जानने चाहिए। आगम में कहे हुए पवित्र दान-धर्म के सेवन के बिना वैभव आदि की प्राप्ति नहीं होती है। लोक में भी "दिया हुआ फलित होता है"-यह प्रसिद्ध है। कभी मिथ्यात्व के उदय से मिथ्या-ज्ञान की श्रद्धा द्वारा अज्ञान कष्ट करनेवाला बाल तपस्वी कष्टकारी पापानुबन्धी पुण्य का संचय करता है, परन्तु पापानुबन्धी पुण्य के उदय से सुपात्र-दान की मति नहीं होती। यदि आगम में कही हुई विधि द्वारा थोड़ा भी सुपात्र-दान आदि धर्म श्रद्धा से करता है, तो उसको पुण्यानुबन्धी पुण्य होता है और इस पुण्य के उदय से उसे दान पुण्य बहुत अधिक होता है। अगर कभी किसी के भवान्तर जन्म में उपार्जित पाप-कर्म के उदय से धन नष्ट हो जाता है, तो भी दान आदि की मति नष्ट नहीं होती। पाप का उदय होने पर भी यथावसर दानादि की बुद्धि प्रबल होती है और उसके वह शीघ्र ही फलित होती है। जैसे
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy