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________________ धन्य-चरित्र/4 किया। केवल जल ग्रहण करके आते हुए मुनि को देखकर चन्द्र के दर्शन से चकोर की तरह वह हर्षित हो गया-"अहो! मेरा भाग्य जागृत हो गया। मैं धन्य हो गया। अगर ये मुनिराज इस आहार को ग्रहण कर लेते हैं, तो मैं धन्यों में भी धन्यतम हूँ।" इस प्रकार विचार कर हर्ष-पूर्वक सम्मुख जाकर नमस्कार करके कहा-"हे कृपानिधि! यहाँ अपने चरणों को विश्राम दीजिए। कृपा करके मुझ दीन का उद्धार कीजिए। दोष-रहित यह आहार ग्रहण कीजिए।" इस प्रकार रोमांचित होकर गद्गद् स्वर में विज्ञप्ति करके मुनि को लेकर आया। मुनि ने भी आहार को तीन प्रकार से शुद्ध जानकर ग्रहण किया। उस अवसर पर अंसभव को भी संभव देखकर गुणसार चन्द्रमा का उदय होने पर समुद्र की लहरों की तरह भाव-धारा के उल्लास को प्राप्त हुआ। विचार करने लगा-"क्या यह स्वप्न है या सत्य है? पाप के उदय से भव-समुद्र में डुबते हुए मुझे बचानेवाला यह तारण - तरण जहाज कहाँ से आया?" इस प्रकार भावातिरेक से समग्र आहार मुनि के पात्र में बहराकर उसने मुनि को नमस्कार करके कहा-“हे स्वामी! आप क्षमाश्रमण ने मुझ तुच्छ पर महती कृपा की। इससे भव-समुद्र में डूबने से बचा लिया। जगत के एकमात्र शरण-भूत रूप आपके सु-दर्शन से मेरा जन्म सफल हो गया।" इत्यादि स्तुति करके सात-आठ कदम उनके पीछे-पीछे जाकर पुनः नमन करके स्व-स्थान में आकर वस्त्रादि को लेकर आगे बढ़ गया। चलता-चलता मन में इस प्रकार विचार करने लगा-"अहो! आज मेरे शुभ दिन का उदय था। वह घड़ी धन्य बनी, जब मैंने मुनि दर्शन किये और उन्हे प्रतिलाभित किया। वह कामधेनु स्वयं ही मेरे आँगन में आयी। अचिन्तित चिन्तामणि उपलब्ध हुआ। मेरा मनुष्य जन्म सफल हुआ। मेरे द्वारा अक्षय पाथेय संचित किया गया। अतः मेरा द्रव्य व भाव दारिद्र्य दूर हुआ व परम लोकोत्तर धन प्राप्त हुआ।" इस प्रकार पुनः पुनः विचार करते हुए मार्ग तय करने लगा। भाव-विभोर होते हुए वह अपनी भूख-प्यास भी भूल गया। सुपात्र-दान के लाभ से हर्षित होते हुए, प्रतिक्षण पुलकित होते हुए वह श्वसुर-ग्राम को प्राप्त हुआ। ग्राम में प्रवेश करते हुए प्रवेश द्वार पर ही मन्द शकुन दृष्टिगोचर हुए। उन्हे देखकर उसने विचार किया-"अपनी स्त्री से प्रेरित मैं आ तो गया हूँ, पर कार्य होगा या नहीं यह दिखाई नहीं देता।" पुनः विचार किया कि"यहाँ आने के प्रयास का फल तो मैंने प्राप्त कर लिया। यह कार्य हो या नहीं, जो भावी द्वारा दृष्ट है, वह अवश्य होगा। व्यर्थ की चिन्ता करने से क्या फायदा?" इस प्रकार सोचता हुआ वह चतुष्पथ पर पहुँचा, तो बाजार में स्थित श्वसुर व सालों ने उसे देखा। वे आपस में बातें करने लगे-"जानते हो? यह गरीबी की मूर्ति स्वरूप जामाता खाली घड़े की तरह हमारे पास जरूर कुछ माँगने आया है। लेकिन इसकी तरफ ध्यान मत देना। अगर ध्यान देंगे, तो गले पड़कर द्रव्य की याचना करेगा। यह अब निर्धन हो गया है और निर्धन को लज्जा नहीं होती। कहा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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