SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/98 था। इधर-उधर घोड़े पर भ्रमण करती हुई सुनन्दा को उसने देखा। पुनः मोह का उदय हुआ और वह रागान्ध हरिण उसे देखकर मोहान्ध भी हो गया। वह हर्षपूर्वक नृत्य करने लगा। पुनः-पुनः उसे एक दृष्टि से देखता हुआ हर्षित होने लगा। तभी सेवको ने गाना रोक दिया। सभी हरिण विभिन्न दिशाओं में भागने लगे। रूपसेन का जीव रूपी हरिण मोहान्ध होकर वहीं खड़ा रह गया। राजा ने उसको उस अवस्था में देखकर रानी से कहा-"प्रिये! यह राग में पूर्ण रूप से आसक्त मृग है, क्योंकि अन्य मृग तो राग के रुकते ही भाग गये, पर यह राग के आशय से रुका हुआ है। यह मृग भर-यौवन से उपचित मांसल कमरवाला दिखायी देता है। इसका मांस अति भव्य होगा। इस प्रकार कहकर कान तक बाण खींचकर उसे मार डाला। वह भूमि पर गिर गया और क्षण भर में ही प्राण मुक्त होकर विन्ध्य पर्वत पर हथिनी की कुक्षि में हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ। राजा उस मृत हरिण के शरीर को सेवकों द्वारा ग्रहण करवाकर अति सुन्दर अपनी वाटिका के आवास में भिजवाया। रसोइयों को आदेश दिया-"इसका मांस सुन्दर रीति से पकाओ। विविध, शुभ, मिलानेवाले द्रव्यों द्वारा इसका संस्कार करो।" राजा के आदेश को प्राप्त करके सेवकों ने विविध मेलापक राजद्रव्यों द्वारा संयोजन करके घी से मांस पकाकर स्वर्णमय-मात्र में भरकर राजा के आगे रखा। राजा ने भी यथायोग्य अन्यों को दिया। फिर राजा व रानी दोनों खाने के प्रवृत्त हुए। स्वाद ले-लेकर पुन:-पुनः प्रशंसा करने लगे। यह मृग का मांस बहुत अच्छा है। पूर्व में बहुत बार खाया, पर इसकी तुलना किसी के साथ नहीं है। उसी समय भाग्य योग से अतिशय ज्ञान युक्त मुनि-द्वय वहाँ पर पधारें। मार्ग में गमन करते हुए असमंजस युक्त अनुचित कार्य देखकर एक मुनि ने ज्ञानोपयोगपूर्वक वह सभी भूत तथा वर्तमान को जानकर दूसरे मुनि से कहा-“देखो! निरर्थक कर्मों का विपाक फल। यह केवल मनयोग की विकल्पना मात्र से किया हुआ कर्म बंध किस रीति से भव-भव में मन, वचन, काया से विभिन्न प्रकार के रूपों में वेद्यमान होने पर भी निर्जरा को प्राप्त अकाल में मरण को प्राप्त होता है। जिसके लिए यह जीव भव-भव में बोलने में अशक्य कर्म क्लेश से जनित दुःख को देता है, वह तो सहर्ष उसी का मांस खा रही है। अतः धिगस्तु असारसंसारगतसांयोगिकभावप्रतिबन्धम् । अर्थात् धिक्कार है, असार-संसार में रहे हुए संयोग-जन्य भाव
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy