SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य - चरित्र / 97 राजा ने कहा- "प्रिये ! गान में अति कुशल अपने सेवकों को साथ लेकर गहन वन में जाता हूँ। वहाँ सेवक वृक्ष के नीचे खड़े रहकर अति मधुर स्वर में गाना गाते हैं। उन्हीं रागों के स्वर की मूर्च्छा में रागान्ध होकर हिरण धीरे-धीरे समीप आने लगते हैं। टोडि, सारंग, सिंधु प्रमुख राग- ध्वनियों में मूर्च्छित, उनमें एकचित्त, गायक के समीप आये हुए निर्भय हरिण हस्त से ग्राह्य सुखपूर्वक खड़े रहते हैं। तब अन्य सेवक दूर जाकर मोटी रस्सी के बड़े जाल द्वारा चारों और से वन को बाँध देते हैं। फिर गाने को विराम दिया जाता है। उसके बाद मृग भागने लगते हैं, पर वन चारों ओर से बंधा हुआ होने से कहाँ जायेंगे ? तब हम दौड़ते हुए उनको मार देते हैं। अगर जीवित भी हों, तो उनको पकड़ लेते हैं। सुनन्दा ने कहा- "उन तृण से भरे मुखवाले निरपराध बिचारों को इतनी कष्ट क्रिया द्वारा मारने से क्या लाभ?" I राजा ने कहा—“यह हमारा राज-धर्म है । हमारी पृथ्वी पर हमार ही तृण चरते हैं, पानी पीते हैं और हमें कुछ नहीं देते। अतः हमारे अपराधी होने से हमने कितने ही हरिणों को मारा है। इसमें कोई दोष नहीं है, बल्कि लाभ ही है। कहा भी गया है परिचयश्चललक्षनिपातने । अर्थात् चलित लक्ष के निपातन में परिचय होता है ।" सुनन्दा ने भी राजा का कहा हुआ सुनकर सर्व सत्य की तरह मान लिया। जिनके कानों में जिनवाणी ध्वनित ही नहीं हुई हो, उन्हें तत्त्व की प्राप्ति कैसे हो? तब सुनन्दा ने कहा - "प्राणनाथ ! महान आश्चर्यकारी यह क्रीड़ा मुझे भी दिखायें | राजा ने कहा- "ठीक है । अब कभी जाऊँगा, तो तुम्हें साथ लेकर ही I जाऊँगा । कुछ दिन व्यतीत होने के बाद राजा ने कहा - " कल आखेट क्रीड़ा के लिए जाऊँगा । यदि तुम्हारी देखने की इच्छा हो, तो साथ चलना ।” दूसरे दिन रानी को साथ लेकर सैन्य सहित राजा गहन वन में जाकर एक विशाल वृक्ष के नीचे ठहर गया। सेवकों को आदेश दिया - "गीत-गान आदि के प्रयोग से हरिणों के समूह को बुलाओ ।” सेवकों ने भी पूर्वोक्त व्यतिकर के अनुसार गीतकला के द्वारा हरिण - यूथ को बुला लिया। तब राजा और रानी घोड़े पर सवार होकर वहाँ गये। राग से आकृष्ट चित्तवाले चित्रलिखित मूर्त्ति की तरह एक ध्यान से हरिण समूह वहाँ उपस्थित था। उन सबके बीच हरिण रूप से पैदा हुआ रूपसेन का जीव भी वहाँ
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy