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________________ धन्य-चरित्र/1 श्री चमत्कारीपार्श्वनाथाय नमः प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वराय नमः श्री धन्यकुमार का हिन्दी अनुवाद (प्रथम पल्लव) स श्रेयस्त्रिजगद्-ध्येयः, श्री नाभेयस्तनोतु वः । यदुपज्ञा जयत्येषा, धर्मकर्मव्यवस्थितिः ।। 1।। स्वस्तिश्रीसुखदं नाथं, युगादीशं जिनेश्वरम् । नत्वा धन्यचरित्रस्य गद्यार्थो लिख्यते मया।। 2 ।। यहाँ मंगलार्थ रूपी श्री ऋषभदेव भगवान की स्तुति आशीर्वाद प्रदान करनेवाली है। जैसे-स्वर्ग, मृत्यु व पाताल रूपी जगत् त्रयवर्ती जीवों को ध्यान के योग्य श्री नाभिपुत्र सभी का मंगल करें। श्री जिन ऋषभ के द्वारा रचित धर्म-कर्म व्यवहार पद्धति इसलोक व परलोक की साधक है, उनका विधि-मार्ग आज भी सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवर्तित है। इस प्रकार इष्ट देवता के लिए समुचित स्मरण व आशीर्वाद- पूर्वक मंगल करके सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए प्रभेदों सहित धर्म–मार्ग को प्रकाशित किया जाता है। इस अपार संसार रूपी अटवी में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों को मनुष्य-भव चुल्लक आदि दस बोलों द्वारा अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें भी आर्य क्षेत्र, उच्च-कुल, आयु, आरोग्यता, रूप आदि सामग्री का संयोग दुर्लभतर है। इन सब में भी श्री जिन-धर्म की प्राप्ति एवं जिन-धर्म में प्रवृत्ति करना अत्यन्त दुर्लभ है। इस जगत में सर्वज्ञ कथित धर्म परम मंगलकारी और समस्त दुःखों का उच्छेदक होता है। यह धर्म चार प्रकार का है-दान, शील, तप और भावना। इन चारों भेदों के मध्य दान श्रेष्ठ है। यह शील आदि तीनों में समाहित हो जाता है। जैसे-लौकिक व लोकोत्तर में सर्वत्र ही दान की प्रवृत्ति विशेष रूप से देखी जाती है। तीर्थकर प्रभु भी पहले दान देकर ही दीक्षा लेते हैं। शील धर्म में भी दान धर्म समाहित है, क्योंकि ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने पर असंख्यात बेइन्द्रिय जीवों को, असंख्यात संमूर्छिम पंचेन्द्रिय जीवों को और नौ लाख गर्भज पंचेन्द्रिय जीवों को प्रतिदिन अभयदान दिया जाता है। गर्भ आदि दुःख के नाशक रूप से स्व-जीव को भी अभयदान दिया जाता है। अतः शील-धर्म में भी दान की ही मुख्यता है।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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