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________________ समझाया। तापस प्रतिबोध पाकर सम्यक्त्वसहित अणुव्रतधारी हुए। फिर कुलपति ने कहा "देव ने कन्या का वर तुझे कहा है अतः शीघ्र इसका पाणीग्रहण करो ।'' यह सुनकर कुमार कुछ बोले इसके पहले कुमार के मस्तक पर पुष्टवृष्टि हुई । उस वृष्टि को देखकर तापस कुछ सोचे तभी गिरिचूड़देव ने प्रकट होकर कहा "मैंने पर्वत पर रहे हुए मुनि को पूछा-यह व्याघ्र पुरुष कैसे होगा?'' उन्होंने कहा "तत्त्वज्ञ पुरुष के संग से ।'' मैंने पुनः पूछा-तत्त्वज्ञ कैसे पहचानूं? मुनि बोले "जो कोलरूप में तुझे देखकर, तुझे जीत ले । वह तत्त्वविद् जानना । तब मैंने अनेक राजधानियों के उद्यानों में जाकर तोड़फोड़ की । पर मुझे कोलरूप में कोई जीत न सका । फिर मैं हेमपुर के उद्यान में कोलरूप | में गया । वहाँ राजा के सौ पुत्रों को हरा दिया । पर इस कुमार के सामने मैं हार गया । फिर हस्तिरूप में माया करके, वृक्षसहित इसे यहाँ लाया । सौंदर्य उदारता, पराक्रम, उपकार और सद्धर्म में इसके समान कोई नहीं, ऐसा मैंने अनुभव किया । हे कुलपते ! कौतुक देखने के लिए मैं अदृश्यरूप में यहाँ रहा । इसके उपदेश से, पूर्वभव संस्कार से बोधि की प्राप्ति हुई । मैं पूर्व में धन्यपुर में धन्य नाम से धनवान था। वसुमति मेरी पत्नी थी । श्रावक मित्र के संग से मैंने गुरु के पास सम्यक्त्व मूल धर्म ग्रहण किया ।" एकबार पत्नी के शरीर में रोग उत्पन्न हुआ । उसकी शांति के लिए वैद्यभाषित अनेक औषध-उपचार किये, पर लाभ न हुआ। तब मांत्रिकों से पूछा । उनके द्वारा दर्शित उपाय से भी ठीक न हुआ । फिर गाढ़ स्नेह से ग्रंथिल बना मैं नगर में आनेवाले जटिकार्पटिकों से भी पूछने लगा । मेरी पत्नी को स्वस्थ करनेवाले को एक लाख रुपये दूंगा ऐसा कहने लगा । ऐसा सुनकर एक जटी ने कहा 'तेरी प्रिया को रोगरहित कर दूं, फिर भी तू प्रतिज्ञावान रहेगा। तब मैंने कहा एक लाख रुपये दूंगा ।' तब उसको घर ले जाकर र ७६ म
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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