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________________ रोते हुए व्याघ्र भाषा में कहा 'भगवन् ! मैंने कौन सा अपराध किया है, जिससे मुझे गिराकर व्याघ्र बनाया । हे कृपानिधि ! कृपा करो और मुझे पुनः पुरुष बनाओ।" मुनि ने कहा 'यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है । किन्तु किसी रोष से इस देवने ऐसा किया होगा । फिर नाटक पूर्ण होने पर मैंने मुनि से पूछा "यह देव कौन है ? और मुझ पर कुपित क्यों हुआ? करुणासागर मुनि बोले "मैं वैराग्य से विद्याधरेशपना छोड़कर प्रव्रजित हुआ । सिद्धान्त पढ़कर भव्यजीवों को गुरु आज्ञा से प्रतिबोधित करते हुए एकाकी विहार में इस पर्वत पर आया हूँ । एक सिंह को गज पर आक्रमण करते देखा तब मैं करूणा से आकाशमार्ग से नीचे उतरा । मेरे तप प्रभाव से सिंह भाग गया । फिर गज को सब जीवों से क्षमापना करवायीं, पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र दिया। वह गज उसका स्मरण करते हुए सौधर्मकल्प में देव हुआ । वह देव पूर्वभव का स्मरण कर मुझे उपकारी मानकर भक्ति से दिशाओं को उद्योतित करता हुआ, मुझे नमस्कारकर पूर्व का वर्णन कहकर, मेरे आगे नृत्य करने लगा । इस बीच छाया देखकर मुझ पर तुझे आते देखकर मेरी आशातना से क्रुद्ध होकर, तुझे इस दशा में लाया है।" "इस प्रकार मुनि वचन सुनकर विनयपूर्वक देव को नमस्कारकर, आँखों से अश्रु वर्षा करते हुए दीनवचनों से शाप से मुक्त करने की प्रार्थना की देव ने कृपा करके कहा "मूढ। राज्यभोगादि छोड़कर भी ऋषिकी आशातना करते हुए तत्त्व को नहीं जानता । निष्फल तप न कर । मेरे प्रभाव से पर्यंक पर बैठकर पूर्व के समान अपने स्थान पर जा । मास के अन्त में तत्त्ववेदी पुरुष तुझे फिर तापस बना देगा । उससे तत्त्व को जानकर उसको अपनी कन्या देना ।'' फिर मैं यहाँ आया । आगे का वर्णन तो आप जानते ही हैं। ऐसा वर्णन सुनकर कुमार एवं तापस आश्चर्य चकित हुए । फिर हर्ष से तपस्वीनियोंने मंगल गीत गाकर उत्सवकर सब तापसों ने मिलकर कुमार को धर्म पूछा। कुमार ने भी यति-धर्म व गृहस्थधर्म विस्तारपूर्वक
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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