SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रिया को दिखायी । फिर उसने अनेक प्रयोगों के द्वारा उसे स्वस्थ कर दी। उसके उपाय से मेरी भार्या पुष्ट शरीरवाली बनी । जटी के आग्रह से एक महिने तक उसे मेरे वहाँ रखा । उसने मुझे जैन धर्म में शिथिल बना दिया । उस पाप की आलोचना लिये बिना मैं मरकर गिरिचूड़ व्यंतर हुआ । कुमार के उपदेश से शुद्धधर्म को प्राप्त किया। इस खुशी में मैंने पुष्पवृष्टि की है। इस कुमार को तापस सुंदरी दे दो । फिर कुलपति ने शीघ्र विवाह क्रिया का आरंभ किया। देव ने सब सामग्री उपस्थित कर दी दिव्यमंडप के रत्नस्तंभों में मुक्ता फलों के तोरण बांध दिये । दिव्य वस्त्राभरण युक्त कन्या और कुमार को विवाह मंडप में ले आये । देव ने कन्यादान में खुश होकर दैवीवस्त्राभूषण दिये । कुलपति ने व्योमगामी पल्यंक दिया । उस रम्यवन में गिरिचूड़ देव निर्मित विमान सदृश हेममयी सप्तखंडी महल में खाद्यादि सामग्री से परिपूर्ण, इच्छित दाता, देव परिवार से युक्त, तापससुंदरी के साथ विलास करता हुआ, कुमार वहाँ रहा । पल्यंक के बल से अनेक तीर्थों की यात्रा की । कभी पत्नी के साथ, कभी अकेला, इच्छापूर्वक नदी, पर्वत, वनादि में क्रीड़ा करता था । तापसों को जैनाचार का पूर्ण ज्ञान करवाया । और उनके हृदय में दीक्षा के भाव उत्पन्न करवाये । वे भी अर्हत् शासन में दीक्षित होने की इच्छावाले हुए । 1 एकबार जयानंदकुमार महल में सातवें खंड में भद्रासन पर स्थित था । तब आकाश से एक परिव्राजक को अपने समीप आते हुए देखा । वह आकर, आशीर्वाद देकर आसन पर बैठा । कुमार ने उसके रूप लावण्यमय वदनकमल को देखकर पूछा - " आप कौन है ? कहाँ से आये ? कार्य क्या है ? आप क्या चाहते हैं?" उसने कहा ' हे शूर ! तेरे जैसा अन्य कोई परोपकारी नहीं है। इसलिए मैं मेरा वृतान्त कहता हूँ । सुनो ।' ७७
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy