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________________ जिनका हृदय नहीं भेदा जा सके वैसे शूरों का भी हृदय दुर्जन खल वाक्यों से भेद देता है । दुर्जन अंतर में प्रविष्ट होकर मैत्री का विनाश करता है । हंस की चोंच क्षीर-नीर का भेद करती है । अग्नि जलाती है और वायु का संगम हो जाय तो कहना ही क्या?" गिरिसंगमनगर में समरवीर राजा राज्य करता था । एक बार नरवीर राजा के साथ उसका विरोध उत्पन्न हो गया । उस समय राजा ने नगर में प्रवेश करने वालों की जांच करनी प्रारंभ कर दी थी । तब छिद्रान्वेषी पुरोहित ने मंत्री पर अपकार करने का अवसर जानकर कूटलेख लिखकर बहुत द्रव्य देकर एक विप्र को दिया, और माया करने का शिक्षण भी दे दिया । वह लेख लेकर बाहर से आया । धूलि धूसरित होकर आया । पहरेदारों को जांच में लेख मिला । राजा के पास ले गये, राजा के पूछने पर उसने कहा “मैं इसी नगर का नागरिक निर्धनावस्था के कारण दानी समरवीर राजा के पास गया था । उसने यह पत्र मतिसुन्दर मंत्री को देने के लिए मेरे साथ दिया है । मुझे स्वर्ण भी दिया है । लेख में क्या लिखा है, मुझे मालूम नहीं । राजा ने विप्र को इजाजत देकर लेख को पढ़ा ।। "स्वस्ति श्रीगिरि संगमनगर से राजाधिराज समरवीर राजा रतिवर्धन नगर में मेरे हृदयमित्र महामंत्री श्रीमान मतिसागर नामा सस्नेह आलिंगनपूर्वक समाचार भेजते हैं कि हम सदा कुशल हैं । आपका कुशल चाहते हैं । आपने पूर्व में कहा था कि मैं अवसर पाकर विश्वस्त राजा को बांधकर आपको राज्य दूंगा । उस कार्य के लिए आप प्रयत्नशील होंगे । वह दिन जब आये, तब हमें शीघ्र सूचित करें, जिससे हम सेना सहित आकर राज्य ग्रहणकर आपको आधा राज्य देने की शर्त पूर्ण करेंगे । इस में
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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