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________________ कोई संदेह न रखें । जो कोई प्रधान कार्य हो तो निवेदन करावे । इति मंगलम् "। राजा ने सोचा ऐसा कभी न सोचा न सुना । ऐसे श्रावक के विषय में किसीने कपट से दोषारोपण तो नहीं किया ! परंतु ऐसी विचारणा मैं क्यों करूं ? मंत्री की पत्नियों को प्राप्त करने का यह स्वर्णावसर हैं । मैं क्यों छोडुं ? इसका यह अपराध प्रकटकर उसको दंडितकर उसकी पत्नियों को स्वाधीन करलुं । इससे मेरा अपवाद भी नहीं होगा ऐसा विचारकर लेख मंत्री को दिया । मंत्री ने अपनी बुद्धि से पुरोहित का कपट जानकर कहा "" 'नाथ ! यह किसी दुष्ट की अनर्थचेष्टा है ।" तब भूपति क्रोधित होकर बोला : रे दुष्ट ! तू ही दुष्ट है। मेरे जैसे विश्वासी पर ही तू ऐसी चेष्टा करता है । स्वयं का दोष दूसरे पर डालकर मुझे ठगना चाहता है।" ऐसा कहकर लेख सभा को बताया। उन सभासदों ने मंत्री में यह दोष असंभवित जाना और दूसरी बात कहने को समर्थ न होने से मौन रहे । तब राजा ने अपने सैनिकों के द्वारा मंत्री को जेल में डलवाकर उसकी प्रियाओं को अंतःपुर में ले आया । उसके मकान पर अपना अधिकार कर लिया । राजा अपने को कृतकृत्य मानता हुआ, अपने राजमहल में गया । तब खिन्न हुआ मंत्री सोचने लगा । 'धिक्कार है ऐसे राजा को । कहा है " सर्प, दुर्जन, नृप, आग, अर्थी, (याचक) नारी, यम, भाग्य, शस्त्र, अपथ्य, अम्भ (जल) विष ये किसी के नहीं होते।" राजा ने यह कार्य मेरी पत्नियों पर राग के कारण किया है । भोजन के अवसर पर ना था । धिक्कार है इस वासना को । नीतिज्ञ, धर्मज्ञ एवं कुलीन राजा भी मुझ पर ऐसा अत्याचार करने लगा ।' ऐसा लगता है, यह सब चार्वाक पुरोहित की चाल है । उसने ही राजा को भ्रमित किया है । व्यर्थ में किसी को दोष २२
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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