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________________ न्यायी है, पराक्रमी है, बुद्धिमान है, ऐसे निर्दोषी पर दोषारोपण कैसे उचित है ? फिर विश्वासी पर विश्वासघात का पाप कौन करें ? इससे पाप का मूल ऐसा परस्त्री ग्रहण कौन शुद्ध बुद्धिवाला इहभव और परभव विरुद्ध कार्य करेगा?" राजा के ऐसे वचन सुनकर दुर्बुद्धि का भंडारी पुरोहित अंतर में दुष्ट, बाहर से शिष्टता बताता हआ बोला - "स्वामिन् ! आपने अच्छा कहा । परंतु एक पक्षीय बात कैसे चलेगी ? नीतिशास्त्र की बात तो सुनो । भक्त होता है वह हितकारी वचन बोलता है । हितकारी काम करता है । जो रत्न जगत में उत्पन्न होते हैं, उसका स्वामी राजा होता है । सब स्त्रियाँ के स्वामी आप हो । आपके लिए कोई परस्त्री है ही नहीं । मंत्री की पत्नी ग्रहण करने में व्रत भंग कैसे होगा? अगर स्वामिभक्त मंत्री है तो अपनी पत्नियाँ समर्पित क्यों नहीं करता? और मैंने तो सुना है कि यह तुम्हारे वैरी किसी राजा के वश में है । एक दिन आपको मालूम हो जायगा । आप सरल हैं, वह मायावी है । आपकी इससे मित्रता कैसी ? आपका द्रोह करने वाला अग्रेसर भी कैसे ! धर्म सहायकता भी आपका विश्वास पाने के लिए ही । उसकी बुद्धि आदि शक्ति भी गुण के लिए नहीं । यह दोषवान् आपके लिए विश्वसनीय नहीं है । परंतु आपने इस पर विश्वास किया है । समय आने पर सब प्रकट करूंगा ।" राजा ने सोचा क्या यह कहता है, वह सब सत्य है? समय पर सब प्रकट होगा । राजा ने उसे आज्ञा दे दी । वह गया । परंतु पुरोहित ने राजा के हृदय में मंत्री के प्रति अविश्वास का बीज बो दीया । उस दिन से राजा मंत्री पर शंका करता हुआ, उसकी प्रियाओं को पाने की इच्छा करता हुआ, बाहर से मित्रता बताता था । कहा है "शत्रुओं के आयुधों से
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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