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________________ मंत्री के सहवास से स्व- पर दर्शन का ज्ञाता होकर दृढ़धर्मी हो गया । एक बार राजसभा में राजा ने साधु और श्रावक के गुणों की प्रशंसा की कि धन्य है उन मुनियों को जो स्वदेह पर भी निर्ममत्वभाव से बारह प्रकार के तप द्वारा परलोक में स्वहित कर लेते हैं । तब वसुसार पुरोहित ने कहा " स्वामी ! कुशास्त्र के उपदेश द्वारा लोगों को ये लोग ठग रहे हैं । जीव ही नहीं है । परलोक भी नहीं है । न पुण्य है, न पाप है, उसके अभाव में शुभ-अशुभ फल कैसे होगा ? लोक व्यर्थ में परभव के दुःख से डर रहे हैं । इस भव में पुण्य कर्म मानकर व्यर्थ क्लेश भोग रहे हैं । " " जो नजरों से देखा जाता है, उतना ही लोक है । खाओ पीओ और मौज करो । भौतिक सुखों को छोड़कर परलोक में सुख की आशा से तप करनेवाले भ्रष्ट होंगे । जैसे गीदड़ मांस को किनारे पर रखकर मच्छली लेने आया, मछली जल में चली गयी और किनारे रखा मांस गृद्ध पक्षी ले गया । इस प्रकार ऐहिक विषयसुख को छोड़कर परभव के सुख को लेने के लिए दौड़नेवाले उभय भ्रष्ट होकर तीव्र तप व्रत नियमादि के पालन से स्वयं को ठगते हैं ।" इस प्रकार पुरोहित की कर्णकटु वाणी को सुनकर राजा ने रोष को छुपाकर मंत्री का मुख देखा । तब सर्वविद्या के ज्ञाता मंत्री ने कहा 'रे मूढ़ ! स्वसंवेदन सिद्ध ऐसे जीव तत्त्व का निषेध क्यों करता है । पीड़ित शरीरवाला भी पुत्र जन्म एवं समाचारादि से सुख को कौन भोगता है ? स्वस्थ शरीर में भी पुत्र मरणादि के दुःख को कौन भोगता है? मेरा शरीर कृश है, स्थूल है । इसमें स्व स्वामी भाव को कौन धारण करता है ? जीवकी सिद्धि है ही । जीव सिद्ध होने पर परलोक भी सिद्ध, पाप-पुण्य, सुख-दुःख सभी सिद्ध हो गये । जीव के बिना 'मैं नहीं हूँ' ऐसा कौन बोलता है ? ' १५
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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