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________________ सम्यक्त्व चिन्तामणि रत्न के समान इष्टफलदाता है, परंतु दुर्लभ है। देव - गुरु- धर्म - ज्ञान पर श्रद्धा लक्षणवाला सम्यक्त्व है । हास्यादि छ, चार कषाय पांच, आश्रव, प्रेम, मद और क्रीड़ा इन अठारह दोषों से मुक्त ही देव है । ज्ञान - दर्शन चारित्र से पवित्र आत्मा, शय्या, पात्र, वस्त्र, आहार आदि सदोष ग्रहण न करे पंच महाव्रतधारक, जो पापरहित मार्ग पर स्वयं चलते हैं और दूसरों को प्रेरित करते हैं, निस्पृही हैं वे गुरु हैं । स्वयं के हितचिंतक साधक को, ऐसे सद्गुरु को गुरु रूप में स्वीकारना चाहिए, जो स्वयं तिर जाते हैं और दूसरों को तारने में सक्षम हैं । पंचमहाव्रत रूप यति (साधु) धर्म, द्वादश व्रत रूप श्रावकधर्म । दान - शील-तप-भाव के भेद से चार प्रकार का धर्म हैं । यह धर्म इस भव में इच्छित सुख एवं परभव में राजा, चक्रवर्तित्व आदि भौतिक सुख प्राप्त करवाकर मोक्ष सुख प्राप्त करवाता है । साधु धर्म का उत्कृष्ट फल शिवगति । श्रावक धर्म की उत्कृष्ट गति बारहवाँ देवलोक । जघन्य से दोनों प्रथम स्वर्ग तक जा सकते हैं । हे भव्यो ! मनुष्यभव आदि दुर्लभ सामग्री जो प्राप्त हुई है इसको यथाशक्ति धर्माराधना से सफल करो ।" इत्यादि धर्म देशना दी । उस समय भवोद्विग्न होकर अनेक लोग प्रव्रजित हुए । अनेक व्रतधारी श्रावक हुए । अनेक समकितधारी हुए । राजादि केवलज्ञानी को वंदनकर अपने महल में गये । मुनि भगवंत, निष्कारण एक स्थान पर नहीं रहते अतः मुनि भगवंत ने नूतन मुनियों के साथ विहार किया । वसुसार पुरोहित मुनि भगवंत के पास आकर भी नास्तिकता को छोड़ नहीं सका । असाध्य रोग की औषधि है ही नहीं । राजा १४
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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