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________________ 'अहं च नास्मि' इसमें तो मेरी माता वन्ध्या है, यह न्याय लागू होता है । अतः दानादि धर्म से स्वर्गादि का फल और हिंसादि से नरकादि का फल प्राप्त होता है यह सिद्ध है ।" इस प्रकार मंत्री के वचन से पुरोहित निरुत्तर हो गया। सभा में राजा से भी अपमानित होकर घर गया । उस दिन से लज्जा के कारण राजसभा में आना उसने बंद कर दिया । मंत्री सत्कारित होकर घर गया। इस प्रकार मंत्री का समय गुर्वादि के पास एवं राजा के पास व्यतीत हो रहा है। एकबार राजा को मस्तक वेदना उत्पन्न हुई । औषधोपचार से शांत न होने पर राजा ने पुरोहित को बुलाया । पुरोहित मंत्रादि का ज्ञाता था । उसने उस वेदना को मंत्र से शीघ्र दूर कर दीया । राजा ने उसे आभूषण आदि भेंट दिये । वह पुनः राजा के पास आने लगा । लोगों में भी उसने पुनः प्रतिष्ठा प्राप्त की । वह नीति, अर्थ और कामशास्त्रों में किंचित् धर्म की बातों का मिश्रणकर राजा का मनोरंजन करने लगा । एक बार मंत्री ने राजा से कहा 'राजन् ! इस चार्वाक चंडाल का संग करना उचित नहीं है ।" इस प्रकार मंत्री के वचन पर भी राजा मौन रहा । पुरोहित ने क्रोधित होकर सोचा हा ! हा! शुद्ध विप्रकुल में उत्पन्न होकर भी इसने मुझे चंडाल कहा । पहले भी इसने सभा में मेरा अपमान किया था। अब उस पराभव को फिर ताजा कर दिया । इस प्रकार पराभव सहन करने वाला अधमता को प्राप्त होता है । क्योंकि मानी प्राणों को छोड़ सकता है । परंतु पराभव सहन नहीं कर सकता । कहा भी है " मान खंडन से प्राण त्याग उत्तम, प्राणनाश से क्षण मात्र दुःख, मान भंग से प्रतिदिन दुःख | कीचड़ पैरों से रौंदा जाता है, अग्नि नहीं । इसलिए प्राण जाय तो जाय, सुख भी जाय तो जाय, परंतु किसी भी १६
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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