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________________ स्वागत है। आओ अपने घर जायँ। स्वयं को नाम पूर्वक बुलाने से चमत्कृत वह उसके महल में आया। श्रेष्ठि ने गौरवपूर्वक स्नान भोजनादि सत्कारकर अपनी कन्या से शादी करने के लिए आग्रह किया । मदन ने कहा "अज्ञात-कुलवाले को कन्या कैसे दे रहे हो?'' तब सेठ ने कहा "मेरे चार पुत्रों पर यह पुत्री यौवनास्था में आयी। मैंने सोचा मैं इसका वियोग सहन नहीं कर सकता । इसे लोक रीति के अनुसार किसीको देनी होगी। क्या करूँ? ऐसी चिन्ता में सोया था । तब रात को कुलदेवी ने कहा 'वत्स! चिंता क्यों करता है ? प्रातः उद्यान में अशोकवृक्ष के नीचे मदन नामका कन्या के योग्य वर मिल जायगा । उसे कन्या दे देना । उसे अपने घर रखना। इस देवी के कथनानुसार तुमको ले आया हूँ। उसने भी सोचा 'प्रिया के बिना कितना काल जा सकता है ? और देवी के कथनानुसार इससे शादी कर यहाँ रहना ठीक है।' सेठ ने विवाह सानंद संपन्न किया। वह वहाँ भोग भोगता रहा । “पुन्य के प्रभाव से भोगों की प्राप्ति होती है। अत: पुण्यार्जन करना चाहिए।" एकबार वर्षाकाल में किसी पति विरहणी स्त्री के रूदन को सुनकर उसे अपनी पूर्व पत्नियों की याद आ गयी। वे कितनी दुःखी होगी, ऐसा वह सोचने लगा । उसकी आँखों को अश्रुभीगी देखकर विद्युल्लता पत्नि ने पूछा 'क्या बात है? उसने कहा 'कुछ नहीं, पर अत्याग्रह होने पर उसने अपनी पूर्व की दोनों पत्नियों की बात कही । उसने सोचा' 'मैं इतनी सेवा करती हूँ फिर भी ये उनको याद करते हैं तो अब समय में विलम्ब करवा दूं।' ऐसा सोचकर कहा “अब तो नदी नाले जल से भरे हुए होंगे। मार्ग विषम हो गया है। शरत्काल में प्रवास का सोचना।" उसने स्वीकार किया । शरत्काल आया, तब उसने पुनः कहा “अब मैं उनको मिलकर आऊँ ! उसने कहा "हाँ जाओ। उसने भाते में 'करम्ब' (मगद नामक मिष्टान्न) (प्रचुर मात्रा १२२ ।
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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