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________________ 44 अधम! यहाँ मेरा प्रभाव क्यों ? उसने कहा आप भी मेरे कर्मानुसार ही देंगे ।" क्रोधित राजा ने कहा जा अपने स्थान पर जा । योग्य वर मिलने पर तुझे बुलाऊँ, तब आ जाना ।" उस विनीत पुत्री ने कहा " जैसी आपकी आज्ञा ।" वह अपने स्थान पर गयी । फिर राजा ने अपने सेवको से कहा "नगर में घूमकर कोई गरीब से गरीब, कुरूप से कुरूप पुरुष को ले आओ ।" वे आपको ले आये। और मैं विजयासुंदरी आपको दी गयी। उसके आगे आप जानते ही हैं। ऐसा सुनकर भिल्ल विस्मित होकर बोला " अपनी ही पुत्री पर पिता का इतना क्रोध क्यों ?" विश्वपावन जैनधर्म के बिना संपूर्ण विवेक कहाँ ? भिल्ल ने सोचा । स्नेह और शील की परीक्षा कर फिर प्रीति करूँगा ।' यही विवेकी पुरुषों की रीति है ।" इधर राजा द्वारा प्रदत्त तांबूल से विष का प्रभाव फैला और तीव्र वेदना होने लगी । उसने पति से कहा "स्वामिन्! राजा के पास ऐसा विष है, जो पान में खिलाने पर तीन प्रहर के बाद उसकी आँखे चली जाती हैं । राजा ने यह विष मुझे तांबूल में दिया है। उसकी उस समय की चेष्टा से ही मैं जान गयी थी । परंतु शुभाशुभ कर्म से शुभाशुभ बुद्धि उत्पन्न होती है । इसके प्रभाव से मेरी आँखों में वेदना हो रही हैं। मुझे लगता है । मेरी आंखे चली जायगी । धिक्कार है मेरे जीवन को। आपकी सेवा के मेरे मनोरथ कैसे पूर्ण होंगे ? अब मुझे दिखायी नहीं देता । मैं तुम्हारे लिए भार रूप हो गयी हूँ । आँखों के बिना जीवन कैसा ? वह जोर-जोर से रोने लगी । " पूर्वभव के मंत्री पत्नी के भव में 'इस अंध को भिल्ल को दे दिया जाय' ऐसा मुनिराज को सुनाया था । उस कर्म के पश्चात्ताप के बाद भी अल्पांशकर्म शेष था । वह उदय में आया और आँखे गयीं उसकी हालत को जानने के लिए राजा ने गुप्तचर भेजे थे । उन्होंने राजा को सारे समाचार दिये । राजा खुश हुआ । क्योंकि पापियों १०७ "
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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