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________________ पाठक सभी आनंदित हुए और कन्या की प्रशंसा की । उस समय विजया के चहेरे पर हास्य भर आया । उसके हास्य को देखकर राजा ने कारण पूछा उसने कहा "कुछ नहीं ।" पिता के आग्रह करने पर उसने कहा “हे पिता ! नीति आदि शास्त्रज्ञ और बुद्धि से देवों को भी जीतने वाले आप जैसे विद्वान मेरे बहिन के सुहाने वचनों से प्रमुदित हुए, तब मुझे क्या कहना है ? तत्त्व से पराङ्मुख सभासद भी प्रशंसा करते हैं, ऐसा असमंजस देखकर मुझे हंसी आ गयी । राजा ने कहा “तो तत्त्व उक्ति द्वारा समस्या पूर्ण करो। " उसने भी पितु आज्ञा को मानकर जैन पंडित से पाए हुए तत्त्व से बोली । "जिनवरो यस्य हृदये वसेत्, जिनमुनिर्जिन तत्त्वानि । स पंडित जन उभयभवे, प्रेक्षते सौख्यशतानि । जिसके हृदय में जिनवर, जिनमुनि, जिनधर्म का वास है वह | पंडितजन इह पर दोनों भवों में सैकड़ों सुखों को पाता हैं। !” ऐसा सुनकर उसका पंडित और बुद्धिमान् सभासद खुश हुये, 44 पर राजा के भय से मौन रहे । फिर राजा ने सभासदों से पूछा 'समस्या पूर्ति किसने सुंदर की ।" तब राजा के अनुकूल होने के कारण उन्होंने कहा " जयसुंदरी ने समस्या की पूर्ति सुंदर की । " राजा ने विजया से कहा ए कुत्सित भाषिणी सभासदों के विरुद्ध क्यों बोल रही है ? उसने कहा मैंने पहले ही कहा था कि प्रायः करके लोक तत्त्व से पराङ्मुख हैं, इस भव सुखार्थ वे सभी चाटुकर वचन बोलते हैं। फिर अपनी अवज्ञा और धर्मपक्षपात से क्रुद्ध हुआ राजा बोला “ए ! तू किसकी कृपा से सुखी है ?" वह बोली "हे तात! मैं और सभी लोग स्व-स्व कर्मानुसार सुख दुःख को पाते हैं । अगर आपके प्रसाद से सुख पाते हो तो फिर कोई दुःखी क्यों ?" इन वचनों से अधिक क्रोधित हुआ राजा बोला " तो तू पति कैसे करेगी ?" उसने कहा आप द्वारा दिया हुआ ।" राजा ने कहा " हे १०६ 44
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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