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________________ स्वामिकार्य विलम्बकृतम्। क्रोधित हो हनुमान ने महेन्द्र पुत्र प्रसन्नीति को ससारथी पकड़ कर 348 महेन्द्र को अपना परिचय दिया कि- मैं सीता की खोज में जा रहा हूँ। तुम शीघ्र राम के पास पहुँचो। 347 तदनुसार महेन्द्र राम के पास पहुँच गया। 350 इससे आगे दधिमुख द्वीप में तीन राजकुमारियाँ विद्या सिद्धि करती हुई मुनि सहित जलने लगी। हनुमान ने समुद्र के जल दावाग्नि को शांत किया। 351 तभी कुमारियों को विद्या सिद्ध हो गई उन्होंने अपना परिचय हनुमान को दिया। साहसगति के मारे जाने के समाचारों से वे कुमारियाँ शीघ्र ही अपने पिता को लेकर राम के पास पहुँची। 352 हनुमान आगे उड़े तो आशाली उन्हें देखकर बोली- "अरे कपि ! असि मम मोज्यताम्"। ज्योंही उसने हनुमान को खाने के लिये मुँह खोला।53 वैसे ही हनुमान ने उसके मुँह में घुसकर उसे फाड़ दिया। उसके किले को भी उन्होंने ध्वस्त कर दिया 354 वज्रमुख व आशालीपुत्री लंकासुन्दरी को हनुमान ने हरा दिया। 35 तब लंकासुन्दरी ने हनुमान से परिणयार्थ निवेदन किया। 35६ हनुमान ने उससे गांधर्व विवाह कर 57 निर्भयता से रात्रि व्यतीत की। 358 प्रात:काल हनुमान लंका पहुँचे। 359 (ए) विभीषण से भेंट : हनुमान सीधे विभीषण के घर पहुँचे। विभीषण ने स्वागत कर आगमन का कारण पूछा। 360 हनुमान ने उन्हें सीता को मुक्त करवाने की बात समझाई। तब विभीषण ने कहा- मैं रावण से इस कार्य हेतु दुबारा प्रार्थना करूँगा। 31 वहाँ से हनुमान उड़कर देवरमण उद्यान में गए। 362_ (ऐ) सीता से भेंट : देवरमण उद्यान में हनुमान ने देखा कि सीता के- "गालों पर बाल उड़ रहे हैं, आँखों में जलधारा प्रवाहित है, मुख मलीन है, शरीर कृश है, विश्वास के कारण अघर व्याकुल हैं, राम-राम का जप कर रही है, वस्त्र मलीन हैं तथा शरीर का भान नहीं है। 365 अदृश्य होकर हनुमान ने ज्योंही अंगूठी फेंकी उसे देखते ही सीता हर्षित हो उठी। 364 तभी पुनः रावण के साथ क्रीड़ा करवाने के लिए समझाने आई मंदोदरी को सीता ने फटकारा कि "उत्तिष्ठोत्तिष्ठ पापिष्टे'' 365 अब हनुमान ने प्रकट हो राम के समाचार दिए कि वे शीघ्र ही शत्रुदमनार्थ यहाँ आ रहे हैं। 366 सीता द्वारा परिचय पूछने पर वे बोले, आरव्यच्चर हनुमानस्मि पवनाञ्जनयोः सुतः । विधया व्योमयानेन - लंड्धिंतो जलधिर्मया। 37 हनुमान पुनः बोले, राम सेनापति सुग्रीव के साथ किष्किंधा में रह रहे हैं। आपके वियोग में पश्चात्ताप करते हैं। लक्ष्मण वैचेन हैं। अनेक वानरों के आश्वस्त करने पर भी दोनों भाई सुख में नहीं रहते। 68 यह मुद्रिका ग्रहण कर आपकी निशानी चूडामणि मुझे दीजिए जिससे राम मुझे यहाँ आया समझें। 93
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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