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________________ जैन दर्शन अपितु संपूर्ण भारतीय दर्शनशास्त्र के गौरव में वृद्धि हुई है। अतः भारतीय प्रमाणशास्त्र में हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा का स्थान अद्वितीय है ।107 __प्राकृत व्याकरण : सिद्धहेमशब्दानुशासन का आठवां अध्याय प्राकृत व्याकरण नाम से जाना जाता है। यह समस्त प्राकृत व्याकरणों की अपेक्षा व्यवस्थित एवं पूर्ण है। हेमचंद्र ने अपने शब्दानुशासन में प्राकृत के मुख्य स्वरुपान्तर्गत प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, पैशाची तथा चूलिकापैशाची की चर्चा करने के पश्चात् अंत में अपभ्रंश की चर्चा की है। प्राकृत व्याकरण के इस अध्याय में चार पाद हैं। क्रमशः प्रथम से चतुर्थ पादान्तर्गत २७१, २१८, १८२ एवं ४४८ सूत्र हैं। प्रथम पाद में संधि, शब्द, अनुस्वर, लिंग, विसर्ग आदि का विवेचन है। द्वितीय पाद में समीकरण, स्वरभक्ति, वर्ण वैपर्यय, शब्दादेश, तद्वित, निपात आदि निरुपित किये गए हैं। तीसरे पाद में विभक्तियों, कारण, क्रिया आदि के नियम दिये गए हैं। चौथे पाद में (महाराष्ट्री प्राकृत) शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची आदि की विशेषताएं वर्णित हैं। अंतिम सूत्रों में अपभ्रंश की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख किया जाता है। इस कृति के आठवें अध्याय की व्यवस्थित आवृत्ति प्रकाशित करवाने का प्रथम श्रेय प्रो. पिशेल को प्राप्त होता है।108 हेमचंद्र ने व्याकरण की प्राचीन परंपरा को अपनाकर महान कार्य किया। आधुनिक युग में अपभ्रंश की खोज खबर का श्रेय हेमचंद्र को ही जाता है ।109 इस कार्य को पूर्ण करने में हेमचंद्र ने अपने से पूर्व व्याकरणाचार्यों से सामग्री प्राप्त की है। योगीन्द्रकृत परमात्मप्रकाश, रामसिंहमुनि-कृत पाहुड़ी दोहा आदि इसके उदाहरण हैं। योगशास्त्र : पतंजलि के योगसूत्र की शैली परलिखा गया यह एक धार्मिक व दार्शनिक ग्रंथ है। यह गद्य-पद्यमय शैली में लिखा है। डॉ. कीथ आदि साहित्यकार इसे विशुद्ध साम्प्रदायिक ग्रंथ कह कर साहित्यिक महत्व देना नहीं चाहते। योगशास्त्र की रचना हेमचंद्र ने राजा कुमारपाल की प्रार्थना पर की थी।11 कुमारपाल को योग-उपासना पर श्रद्धा थी। अपनी श्रद्धा को पूर्ण करवाने के लिए उन्होंने योगशास्त्र की रचना करवाई। हेमचंद्र का योगशास्त्र रचने का उद्देश्य मात्र स्वामी को संतोष प्रदान न होकर लोकमानस को बोध देना भी रहा है। 12 १२ प्रकाश तथा १०८ शोकयुक्त यह ग्रंथ जैन श्वेताम्बर संप्रदाय के लिए महत्वपूर्ण है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के उद्धरण भी इस ग्रंथ में मिलते हैं।13 इसे "अध्यात्मोपनिषद" भी कहा जाता है। इस ग्रंथ की प्रशंसा सोमप्रभाचार्य व मेरुतुंग ने भी की है। "गृहस्थ जीवन में उच्च स्थिति में रहने के पश्चात् जीवन को योग की तरफ ले जाना ही इस कृति का हेतु है।" कृति के प्रथम चार प्रकार में गृहस्थाश्रम का धर्ममय जीवन तथा पांच से वारह प्रकाशों में योग के विभिन्न विषयों का वर्णन है। गृहस्थ जीवन को निर्देशित 43
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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