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________________ स्वास्थ्य के उपायों, जैसे – यम, नियम, आहार, विहार और औषधियों का विवेचन है । साथ ही, इसमें दैविक, भौतिक, आधिभौतिक, जनपदोध्वंसी रोगों की चिकित्सा का विस्तार से विचार किया गया है । आठवीं शताब्दी के दिगम्ब आचार्य अकलंकदेव कृत 'तत्त्वार्थवात्तिक' (राज वार्तिक) नामक ग्रन्थ में 'प्राणावाय' की परिभाषा बताते हुए कहा गया है'कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेद: भूतिकर्म- जांगुलिकप्रक्रमः प्राणापान विभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत् प्राणावायम् । (रा. वा, अ. 1, सू. 20 ) अर्थात् - जिसमें कार्याचिकित्सा आदि आठ अंगों के रूप में सम्पूर्ण आयुर्वेद, भूतशान्ति के उपाय (अथवा महाभूतों की क्रिया), विषचिकित्सा ( जांगुलिकप्रक्रम) और प्राण - अपान आदि वायुओं के शरीर धारण करने की दृष्टि से विभाजन का, प्रतिपादन किया गया है, उसे 'प्राणावाय' कहते हैं । आयुर्वेद के आठ अंगों के नाम हैं - कायचिकित्सा (मेडिसिन), शल्यतंत्र (सर्जरी), शालाक्यतन्त्र ( ईअर, नोज, थ्रोट, ऑफ्थेल्मोलोजी), भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, ( विषचिकित्सा), रसायनतन्त्र और वाजीकरणतन्त्र । चिकित्सा के समस्त विषयों का समावेश इन आठ अंगों में हो जाता है । चरकसंहिता (सूत्र, अ. 30 ) में अगदतन्त्र को 'जांगुलिकम्' नाम दिया गया है। राजवार्तिक में भी इसी अर्थ में 'जांगुलिकप्रक्रम' शब्द आया है । 'कषायपाहुड़' पर वीरसेन ने 'जयधवला' नामक अपूर्ण टीका लिखी । इसको उनके ही शिष्य जिनसेन ने ई. 837 में पूर्ण किया । इस टीका में द्वादशांग श्रुत के अंतर्गत 'प्राणावाय पूर्व' की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है 'प्राणावायावाद नामक पूर्व दस प्रकार के प्राणों की हानि और वृद्धि का वर्णन करता है । पांच इन्द्रियां, तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास - ये दस प्रकार के प्राण हैं । आहार निरोध आदि कारणों से उत्पन्न हुए कदलीघातमरण के निमित्त से आयु- प्राण की हानि हो जावे, परन्तु आयु -प्राण की वृद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नवीन स्थितिबंध की वृद्धि हुए बिना उत्कर्षण के द्वारा केवल सत्ता में स्थित कर्मों की स्थितिवृद्धि नहीं हो सकती है । यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठ अपकर्षों के द्वारा आयुकर्म का बंध करने वाले जीवों के आयु-प्राण की वृद्धि देखी जाती हैं । यह 'प्राणावायप्रवाद पूर्व' हाथी, घोड़ा, मनुष्य आदि से सम्बन्ध रखने वाले अष्टांग आयुर्वेद का कथन करता है | यह उपर्युक्त कथन का तात्पर्य समझना चाहिए । आयुर्वेद के आठ अंग कौन से हैं, बताते हैं— शालाक्य, कायचिकित्सा, भूततंत्र, शल्य, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, बालरक्षा और बीजवर्धन – ये आयुर्वेद के आठ अंग हैं । ( कषायपाहुड, जयधवला टीका, पेज्जदोसंदिहत्ते, 1, गा. 113 ) । [ 12 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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