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________________ 'दष्टयो दर्शनानि नया वा उच्यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यत्रासौ ष्टिवादो ष्टिपातो वा । प्रवचन पुरुषस्य द्वादशाङ्गे।। 'प्रवचनसारोद्धार' (द्वार 144) में भी कहा है - जिसमें सम्यक्त्व आदि दृष्टियों-दर्शनों का विवेचन किया गया है, उसे 'दृष्टिवाद' कहते हैं_ 'दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वादि, वदनं वादो वा दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः ।" सामान्यतया 'दृष्टि' शब्द से दर्शन और 'वाद' शब्द से चर्या-यह अर्थ लिया जाता है। 'दृष्टिवाद' में समग्र जैन-ज्ञान-परम्परा निहित थी। ___'नन्दीसूत्र' में दृष्टिवाद का परिचय प्राप्त होता है। इससे ज्ञात होता है कि इस अंग के अंतर्गत जिन-प्रणीत समस्त भावों का निरूपण था । 'स्थानांगसूत्र' (101742) में दृष्टिवाद के निम्न दस पर्याय बताये गए हैं1 अणुजोगगत (अनुयोगगत), 2 तच्चावात (तत्त्ववाद), 3 दिद्विवात (दृष्टिवाद), 4 धम्मावात (धर्मवाद }, 5 पुव्वगत (पूर्वगत), 6 भासाविजत (भाषाविजय), 7 भूयवात (भूतवाद), 8 सम्मावात (सम्यग्वाद), 9 सव्वपाणभूतजीवसत्तसुहावह (सर्वप्राणभूत जीवसत्त्वसुखावह) और 10 हेउवात (हेतुवाद)। इनमें से प्रथम और पांचवां नाम दृष्टिवाद के भेद-सूचक हैं। इन्हें औपचारिक रूप से पर्यायों में गिन लिया गया है। समवायांग और नंदीसूत्र में दृष्टिवाद के पांच भेद (विभाग) बताये गए हैं1 पूर्वगत, 2 सूत्र, 3 प्रथमानुयोग, 4 परिकर्म और 5 चूलिका। इनमें से 'पूर्वो' का सर्वाधिक महत्त्व है। ___ 'पूर्व' का तात्पर्य है अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर से पूर्व (पहले) जो ज्ञान विद्यमान था और जिसका आदिनाथ तीर्थंकर आदि पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने उपदेश दिया था । अत: यह जैन-आगम का प्राचीनतम अंश था। 'पूर्व' साहित्य अत्यन्त विस्तृत रूप में था । इस विशाल साहित्य के संबंध में विचित्र मान्यताएं भी प्रचलित हैं । कल्पसूत्र' के एक वृत्तिकार ने लिखा है प्रथम पूर्व को लिखने के लिए एक हाथी के वज़न जितनी स्याही चाहिए, द्वितीय पूर्व के लिए दो हाथियों जितनी, तीसरे पूर्व के लिए चार हाथियों के वजन जितनी स्याही चाहिए । इस प्रकार क्रमशः दुगुनी-दुगुनी करते हुए अंतिमपूर्व के लिए 8192 हाथियों के वजन के बराबर स्याही लगने की बात कही गयी है। यह कथन अतिरंजित अवश्य है, परन्तु इससे पूर्वो के साहित्य की विशालता और गंभीरता का आभास होता है। पूर्वो का अस्तित्व महावीर से पहले प्रमाणित होता है। अत: पूर्वो का साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 'पूर्व' चौदह हैं। इनमें से बारहवें पूर्व का नाम 'प्राणावाय' है। इस पूर्व में मनुष्य के आभ्यन्तर अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्म अर्थात् शारीरिक [ 11 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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