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________________ गोम्मटसार 'जीवकण्ड' की गाथा 366 की कर्नाटवृत्ति में निम्न प्रकार से प्राणावाय का अर्थ स्पष्ट किया गया है 'प्राणानामावादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावादं द्वादशं पूर्व मदु। कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदं भूतिकर्मज जांगुलि प्रक्रम ईलापिंगला सुषुम्नादिबहुप्रकार प्राणापानविभागमं दशप्राणगलुपकारकापकार कद्रव्यं गलुमं गत्याद्यनुसारदिवणिसुमुल्लिद्विलक्षगुणित पंचाशदुत्तरषट्शतपदगलुत्रयोदशं कोटिगलप्पुवं बुदत्थं। 13 को 130000000।' जीवतत्वप्रदीपिका संस्कृत छाया- "प्राणानां आवाद: प्ररूपणमस्मिन्नति प्राणावादं द्वादशं पूर्व, तच्च कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदं भूतिकर्मजांगुलिप्रक्रम इलापिंगलासुषुम्नादिबहुप्रकारं प्राणापान विभागं दशप्राणानां उपकारकापकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति। तत्र द्विलक्षगुणितपंचाशदुत्तरषंट्छतानि पदानि त्रयोदशकोट्य इत्यर्थः 13 को.।" -"प्राणों का आवाद-कथन जिस में है वह प्राणावाय नाम बारहवां पूर्व है। वह कायचिकित्सा आदि अष्टाग- आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलिप्रक्रम, ईड़ा-पिंगला-सुषुम्ना आदि अनेक प्रकार के प्राण - अपान, 'श्वासोच्छ्वास' के विभाग का तथा दस प्राणों के उपकारक-अपकारक द्रव्यों का, गति आदि के अनुसार वर्णन करता है। उसमें दो लाख से गुणित छह सौ पचास अर्थात् तेरह करोड़ पद हैं।" श्वेताम्बर मान्यता में प्राणावाय का अन्य नाम 'प्राणायु' पूर्व भी है। आयु और प्राणों के भेद-प्रभेदों का विस्तार से निरूपण होने के कारण इसे 'प्राणायु' कहते हैं । ('प्राणावाय' शब्द की निरुक्ति भी ऐसी ही है)। दृष्टिवाद के इस पूर्व की पदसंख्या दिगम्बर मत में 13 करोड़ और श्वेताम्बर मत में 1 करोड़ 56 लाख थी। पद का तात्पर्य शब्द है । अर्थसमाप्ति का नाम पद है। जिन अक्षरों के समुच्चय से कोई अर्थ प्रकट हो वह पद है । परन्तु जैन-आगम में श्रुतज्ञानरूप द्वादशांग के परिमाण में अधिकार माना गया है। पद के निश्चित स्वरूप के ज्ञान हेतु अब कोई परम्परा विद्यमान नहीं है। 'प्राणावाय' की उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार शारीरशास्त्र (Anatomy and Physiology) और चिकित्साशास्त्र- इन दोनों विषयों का वर्णन 'प्राणावाय' में मिलता है । इसके साथ 'योगशास्त्र' भी अनुस्यूत है । निश्चय ही, बाह्य हेतु-शरीर को सबल और उपयोगी बनाकर आभ्यन्तर-आत्म साधना व संयम के लिए जैन आचार्यों ने 'प्राणावाय' (आयुर्वेद) का प्रतिपादन कर अकाल जरा-मृत्यु को दूरकर दीर्घ और सशक्त जीवन हेतु प्रयत्न किया है; क्योंकि, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों की प्रपित के लिए शरीर का स्वस्थ रहना अनिवार्य है 1 जै. सा. वृ. इ. भाग 1, पृ. 51-52 [ 13 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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