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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य ध्यातव्य __संमूर्छिम मनुष्य अपर्याप्त बादर त्रस जीव हैं, कि जो अपने लिए चर्मचक्षु से ग्राह्य नहीं। उनकी उत्पत्ति, स्थिति वगैरह सब कुछ हमे प्रभुवचन के अनुसार स्वीकार्य है। अर्थात् वह आज्ञाग्राह्य पदार्थ है। उसमें तर्क वगैरह को मुख्यतया स्थान नहीं हो सकता, यदि तर्कादि यादृच्छिक रूप में प्रवृत्त हो । आगमिकआज्ञाग्राह्य पदार्थ को समुचित रूप में समझाने के लिए योग्य तर्क का आश्रय लेने में अनौचित्य नहीं है। अत एव आज्ञाग्राह्य पदार्थ में तर्क का व्यापार वहीं तक उचित गिना जा सकता है, जहाँ तक वह जिनवचनसापेक्ष हो । वास्तव में तो, आगम का विरोध न आए उस तरह ऊहापोह करना वही तर्क का लक्षण है, क्योंकि कहा गया है कि - आगमस्याऽविरोधेन, ऊहनं तर्क उच्यते । (अमृतनादोपनिषत्-१७) प्रस्तुत प्रबंध में आज्ञाग्राह्य संमूर्छिम मनुष्य विषयक आगमिक परंपरा को सम्यक् रूप में समझाने के लिए ही तर्क वगैरह का सहारा लिया है, न कि उसे स्वतंत्र रूप में सिद्ध करने के लिए। इसका कारण यह है कि अतीन्द्रिय पदार्थों की पारमार्थिक समझ पाने के लिए आगम और तर्क स्वरूप दोनों प्रकार की चक्षु अर्थात् संपूर्ण दृष्टि का होना आवश्यक है। इस बात के लिए अध्यात्मउपनिषत् का निम्नोक्त श्लोक स्मर्तव्य है - आगमश्चोपपत्तिश्च संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥१/९॥ 10
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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