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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी अंतराय आदि के कारण आराधना सिद्ध न होती हो और उन अंतरायों को दूर करने का स्वयं में सामर्थ्य न हो, तब साधक उपद्रव आदि को शांत करने के लिए सम्यग्दृष्टि देव-देवी से सहायता मांगता है । क्योंकि, सम्यग्दृष्टि देव-देवी उपद्रवों को शांत करने में समर्थ हैं। (वैसे तो परोपकारी श्रावक अन्य श्रावककी मुश्किलों व उनके कारण आराधना में आनेवाली अडचनो को देखने के बाद बिना मांगे ही सहायता करता है। परन्तु किसी भी कारणवश श्रावक की दृष्टि वहां तक न जाए, तो मुश्किलों से घिरे श्रावकको अपनी आराधना आगे बढाने के लिए अन्य परोपकारी श्रावककी सहायता मांगने में कोई संकोच नहीं होता है। वैसे ही देव भी सच्चे साधक को मदद करते ही हैं। परन्तु वर्तमानमें कालदोष के कारण अच्छे कार्योंमें बार बार विघ्न होने के कारण तथा कालदोष के कारण देवों का उपयोग नहीं जाता होने से उनके पास प्रतिदिन सहायता मांगी जाती है, यह जीवानुशासनमें कहा गया है।) इस प्रकार विविध महापुरुषों ने स्वपर की आराधना को वेगवान बनाए रखने के लिए दैवी सामर्थ्यवाले देव-देवीयों से जो भी सहायता मांगी थी, वे मांगे वास्तवमें तो समाधि-बोधिको ही मांगे है। शासनप्रभावना द्वारा अनेक लोग जैनशासन प्राप्त करते हैं । अर्थात् कालांतर में जैनशासन की निरवद्य तथा मोक्षप्रापक धर्माराधनाओं को प्राप्त करते हैं । शासनरक्षा से भव्यात्माओं की धर्माराधना निर्मल रहती है । ऐसी आराधनाओं में मोक्षप्रापकता एवं संसारनाशकता टिकी रहती है और संसारवृद्धि का भय टल जाता है। यहां भी महापुरुषों ने उन मांगोंमें अंततःतो समाधि-बोधि की ही प्रार्थना की है। यह सहज ही समझा जा सकता है। लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजी एक ओर सम्यग्दृष्टि देव-देवीयों से समाधि-बोधि, विघ्नोपशमन, मांगने से इनकार करते है और दूसरी ओर दीक्षादि में देव-देवी के कायोत्सर्ग तथा उनकी स्तुति बोलने को
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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