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________________ त्रिस्ततिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी स्वीकार करते हैं। यह दोहरी नीति नहीं तो और क्या हैं? ____ दीक्षा की विधिमें प्रारम्भ में जो देववंदना होती है और उसमें छठवां कायोत्सर्ग श्रुतदेवताकी आराधना के लिए होता है। कायोत्सर्ग के बाद श्रुतदेवता की स्तुति भी बोली जाती है और उसमें श्रुतदेवतांको 'तुभ्यं नमः' कहकर नमस्कार भी किया जाता है। सातवां कायोत्सर्ग शासनदेवता का होता है। इसमें भी स्तुति बोली जाती है। इसमें आप जल्दी से समीहित (इच्छित) दों,' ऐसी मांग की जाती है। आठवें कायोत्सर्गमें समस्त वैयावच्चकारी देवताओं का कायोत्सर्ग होता है और वहां भी स्तुति बोली जाती है। इसमें शांति की मांग की गई है। लेखकश्री को दीक्षा में श्रुतदेवतादि का कायोत्सर्ग करना तथा स्तुति करना मान्य है और प्रतिक्रमण में मान्य नहीं । यह किस घर का न्याय है, यह उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। ___ हालांकि लेखकश्रीने अनुष्ठानों के शास्त्र निरपेक्ष मिथ्या काल्पनिक भेद करके उपर दर्शाई आपत्तियों को टालने का पुरुषार्थ किया है। परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली । उपर से और अधिक फस गए हैं । उन्होंने अनुष्ठानोके द्रव्यानुष्ठान तथा भावानुष्ठान ये दो भाग जिस तरह से किए हैं। उस तरह इन भेदों को शास्त्रों का कोई समर्थन ही नहीं। इस प्रकारके भेद, अपने मतका येन केन प्रकार से पोषण करने की आग्रहदशा से दूषित स्वमति कल्पना की ही उपज है। पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजीने योगदृष्टि समुच्चय ग्रंथ में दीक्षा (प्रव्रज्या) को ज्ञानयोग की प्रतिपत्ति स्वरुप बताया है। अर्थात् भावानुष्ठान के स्वरुपमें ही बताया है। प्रव्रज्या को अतात्त्विक सामर्थ्य योग भी कहा है। क्योंकि, प्रव्रज्या के स्वीकार के समय मुमुक्षु का भावोल्लास इतने उत्कट कोटि का होता है, कि उस समय आत्मा का सामर्थ्य काफी बढ़ गया होता है। (वह मात्र केवलज्ञान तक नहीं ले जाता। इसलिए उसे अतात्त्विक कहा गया है। सामर्थ्ययोग का फल केवलज्ञान
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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