SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी चैत्यवंदन महाभाष्य की बातों को ('तिन्निवा'गाथा की स्पष्टताओं को) एक बाजु पर रख दिया है। कारण स्पष्ट है कि, वह पाठ-ग्रंथ उनकी मान्यतामें अवरोधक बनता है। किसी भी शास्त्रपाठ का अर्थघटन अन्य शास्त्रपाठों से विरुद्ध न हो, इस प्रकार करना होता है। सभी शास्त्रपाठ स्वसम्बंधी ( अर्थात् अपने ही विषयको दर्शानेवाले ) अन्य शास्त्रपाठ से समन्वित होते हैं । टीकाकार परमर्षि इन सभी शास्त्रपाठों का समन्वय करते हैं। इसलिए एक स्थल से किसीभी पाठ को देखकर उसका अर्थघटन करें, उसमें उससे सम्बंधित अन्य शास्त्रपाठों का विरोध तो नहीं होता है न ! यह भी देखना होता है। यदि यह न देखा जाए तो अर्थघटन गलत होता है। दोनों पुस्तकों के लेखकों ने अन्य शास्त्रपाठों को देखा ही नहीं है। ऐसा कहना पडेगा। लेकिन ऐसा कहा नहीं जा सकता । क्योंकि उन्होंने अपनी पुस्तकमें चैत्यवंदन महाभाष्य ग्रंथ के नाम उल्लेख तो किया ही है। साथ ही उस ग्रंथ में चतुर्थ स्तुति की सिद्धि भी की है, उसका उल्लेख भी किया है। इसलिए लेखक के ध्यानमें यह पाठ होने के बावजूद वह उनकी मान्यता को तोड़नेवाला होने के कारण उसे ग्रहण नहीं किया। लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजी यदि सत्याग्रही हों, तो उन्हें चैत्यवंदन महाभाष्य की तिन्निवा' गाथा की चर्चावाला, चैत्यवंदन के नौ भेदवाला तथा चतुर्थस्तुति की सिद्धिवाला पाठ अपनी पुस्तकमें रखना चाहिए था और उसका यथार्थ अर्थ दर्शाना चाहिए था। हमें भरोसा है कि, लेखक मुनि श्रीजयानंदविजयजी यह कार्य करेंगे तो अपना मंतव्य भी बदले बिना नहीं रहेंगे। क्योंकि, लेखक ने अपने मत के पूर्व के लेखकों की भूलों तथा पाठों का गलत अर्थघटन बदला ही है। अपनी दोनों पुस्तकों में भी 'तिन्निवा' गाथा का अर्थ बदला है। (यह पाठक देख सकेंगे।) यह क्यों बदला है, यह भी स्पष्टता करनी चाहिए थी। प्रश्नः लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजीने 'तिन्निवा' गाथा का
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy