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________________ १८२ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी (चतुर्थस्तुतिका) निषेध किया है। दूसरी ओर चैत्यवंदन महाभाष्यमें चतुर्थ स्तुति की सिद्धि स्पष्ट दिखाई देती है और प्रश्नकार ने यह बात उपस्थित की है । इसलिए धर्मसंकटमें पडे लेखक अपनी मिथ्या अवसरवादी शास्त्र सापेक्षता को बचाने के लिए तथा प्रश्नकार को चुप करने के लिए अपनी पूर्व की बात से विपरीत बात करते हुए कहते हैं कि, चैत्यवंदन महाभाष्यमें द्रव्यानुष्ठान के संदर्भ में चतुर्थ स्तुति को सिद्ध किया गया है । यहां स्मरण कराएं कि, चैत्यवंदन महाभाष्यमें वादिवेताल पू. शांतिसूरिजी महाराजा देववंदनकी विधिमें ही चतुर्थ स्तुति को सिद्ध करते हैं। लेखकने तो पूर्व में देववंदन को भावानुष्ठान कहा है और अब प्रश्न के उत्तरमें देववंदन को द्रव्यानुष्ठान स्वरुप बताते हैं । यह स्पष्ट वदतो व्याघात है। पूर्वमें बताए अनुसार लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजी ने अनुष्ठान के जो दो भाग किए हैं, ऐसे भाग करके ग्रंथकार ने द्रव्यानुष्ठान की अपेक्षा से चतुर्थ स्तुतिकी सिद्धि नहीं की, परन्तु लेखक ने अपनी मिथ्या अवसरवादी शास्त्रसापेक्षता को सुरक्षित रखने के लिए ही इस प्रकार का विधान किया है । प्राकृतजन को याद भी नहीं कि, लेखक ने पूर्वमें देववंदन को भावानुष्ठान के रुपमें स्वीकार किया है। यहां लेखक से प्रश्न यह है कि, प्रतिक्रमण आदिमें आनेवाला देववंदन भावानुष्ठान और प्रतिष्ठा दीक्षा आदि में आनेवाला देववंदन द्रव्यानुष्ठान इस प्रकार के सुविधाजनक विभाग किस शास्त्र वचन के आधार पर किए हैं ? पाठक समझ सकते हैं कि, अपनी बात को किसी भी कीमत पर सिद्ध करने के लिए लेखक ने युक्तियों का सहारा लिया है। 'उस समय विरोध था, इसलिए चैत्यवंदना के दौरान चौथी थोय को सिद्ध करना पडा है तथा विरोध हुआ हो वह बात निर्विकल्प स्वीकार नहीं
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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