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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १८१ स्पष्ट कहा गया है। गाथा-७८८ में उनकी स्तुति भी बोलने को कहा गया है। (२) 'चैत्यवंदन महाभाष्य' ग्रंथ के रचयिता (उत्तराध्ययन सूत्रकी बृहद्वृत्ति के रचयिता) श्रीशांतिसूरिजी महाराजा ही हैं। वे सुविहित महापुरुष हैं। उनके ग्रंथ व उनकी टीकाएं जैनशासन में तपागच्छ में सर्व श्री चतुर्विध संघ प्रमाणित मानते हैं । प्रमाणित ग्रंथ की साक्षी स्वीकारनी ही चाहिए। (३) चैत्यवंदन महाभाष्य में देववंदन की विधि में वैयावच्चगराणं आदि पदों के समझौते में 'चतुर्थ स्तुति'की विहितता एवं उपयोगिता सिद्ध की गई है। देववंदन में चतुर्थ स्तुतिकी सिद्धि से 'देववंदन भावानुष्ठान है, इसमें देव-देवीकी स्तुति नहीं बोलनी चाहिए'-ऐसी त्रिस्तुतिक मत की मान्यता का खंडन हो जाता है। (४) 'अंधकार से प्रकाश की ओर' पुस्तक के पृष्ठ-५ पर तथा 'सत्य की खोज' पुस्तक के पृष्ठ-७० पर प्रश्न-३१३ के उत्तरमें लेखक लिखते हैं कि, "चैत्यवंदन भाष्य में चतुर्थ स्तुति को सिद्ध करने में आया है, इसका क्या कारण है। ___ - जिन जिन महापुरुष ने चौथी स्तुतिकी सिद्धि उन्होंने द्रव्यानुष्ठान को लक्ष्यमें रखकर ही की है। कारण कि उस समयमें द्रव्यानुष्ठानों में भी देवस्तुति का निषेध करने वाले होंगे।" ___उपरोक्त लेखमें लेखकश्रीने दो बातें की हैं। (१) ग्रंथकार परमर्षियों ने चतुर्थ स्तुति की सिद्धि द्रव्यानुष्ठान को लक्ष्यमें रखकर की है। (२) चैत्यवंदन महाभाष्य की रचना हुई होगी, तब चतुर्थ स्तुति का विरोध करनेवाले होंगे। इसीलिए सिद्धि करनी पड़ती है। (यह बात लेखक परोक्षरुप से कहते हैं।) उनकी पहली बात ‘वदतो व्याघात' है । क्योंकि, अपनी पुस्तक में चैत्यवंदन-देववंदन को भावानुष्ठान कहते हैं और भावानुष्ठान में देवस्तुति का
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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