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________________ १८३ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी की जा सकती।' ___लेखक की यह दूसरी बात भी तथ्यहीन है। क्योंकि, परमात्माकी वाणी त्रिकालाबाधित है।इस वाणी में वस्तु जैसी होती है वैसी ही प्ररुपित की जाती है।वस्तु का स्वरुप भी स्वंयसिद्ध है। शास्त्रकार परमर्षि स्वयंसिद्ध वस्तु को हेय-उपादेय-ज्ञेय के विभागोंमें प्ररुपित करते हैं। उस समय जगतमें पदार्थ के स्वरुप के विषयमें चलनेवाले विवादों का भी निवारण करते हैं। वस्तु जिस स्वरुप में हो उससे विपरीत बताते हुए वादियों का खंडन भी करते हैं। स्वयं जिसका निरुपण करते हैं उसमें कोई वादी विरोध दर्शाए तो उक्ति (आगमवचन) तथा युक्ति से अपनी बात को सिद्ध भी करते हैं और परमात्मा द्वारा प्ररुपित तत्वों को विशुद्ध रखने का कार्य करते हैं। चैत्यवंदन महाभाष्यकारने भी चतुर्थस्तुति की सिद्धि ऐसे ही उद्देश्य से की है। चतुर्थ स्तुति विहित और उपयोगी ही थी । परन्तु वादी उसे मानने को तैयार ही नहीं होता था। इसलिए उक्ति एवं युक्ति से यहां सिद्ध किया है। लेखक ये कहते हों कि, चतुर्थ स्तुति का विरोध हुआ है इसलिए वह सत्य नहीं कहलाएगी तथा उसे अविच्छिन्न परम्परा नहीं कहा जा सकता और इसलिए उसे निर्विकल्प स्वीकार भी नहीं किया जा सकता तो उनकी यह बात बिल्कुल अयोग्य है। क्योंकि, वस्तु की अनंतधर्मात्मकता स्वयंसिद्ध ही है, अर्थात् वस्तु अनंता धर्मों का आश्रय है, यह वास्तविकता स्वयंसिद्ध ही है। परन्तु एकांतवादी अन्य दर्शनकार स्वयंसिद्ध वस्तु की अनंतधर्मात्मकता का विरोध करते हैं। इसीलिए अपने शास्त्रकार परमर्षियो को वस्तुकी अनंतधर्मात्मकता को उक्ति एवं युक्ति से सिद्ध करने की आवश्यकता पडी है। वस्तु की अनंतधर्मात्मकता का विवाद हुआ था, इसलिए वह स्वीकार्य नहीं, ऐसा तो कोई जैन मतावलंबी नहीं मानता है। • जैसे भगवान के भावनिक्षेप भाववृद्धि के कारण है, वैसे ही नाम-स्थापना
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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