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________________ बन्धन मुक्ति श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र बन्धन मुक्ति धन धान्य से परिपूर्ण और मनुष्यों से शून्य एक शहर के दरवाजे पर खड़ा हुआ एक युवा पुरुष विचार कर रहा है "अब मैं कहां जाऊँ? उस अनजान पुरुष की किस तरह शोध करूँ? मैं खुद तो उसे पहचानता ही नहीं । उसे पहचानने वाला साथ में आया हुआ मनुष्य भी बीमार होने के कारण वापिस चला गया । मैं तो उसका नाम ठाम या आकृति वगैरह कुछ भी नहीं जानता। अब तो अनेक शहर, गाँव, आश्रम वगैरह फिर फिर कर थक गया । परंतु खोये हुए धन के समान उस मनुष्य का कुछ भी पता न लगा । अगर वह कहीं नजदीक में ही हो और मुझे मिल भी जाय तो पहले देखे वगैर मैं उसे किस तरह पहचान सकूँगा? इत्यादि विचारों और रास्ते के परिश्रम से खिन्न हुआ वह युवक विश्रांति के लिए इस शून्य शहर में प्रवेश करता है। आगे चलने पर उसे अपने सन्मुख आता हुआ सुंदर आकृतिवाला एक पुरुष दिखाई दिया । उस पुरुष को शहर में प्रवेश करते हुए इस युवक की कुछ आवश्यकता हो ऐसा उसके चेहरे पर से मालूम होता था। शहर में प्रवेश करने वाले उस थके हुए युवक को देखकर शहर में से आता हुआ पुरुष बोल उठा- हे वीर पुरुष! आप कौन हैं? और कहाँ से आये हैं? यह सुन कर शहर में प्रवेश करनेवाले युवक ने उत्तर दिया, "भाई मैं एक पथिक हूँ देशाटन करते हुए रास्ते के परिश्रम से थक कर विश्रांति के लिए इस शहर में प्रवेश कर रहा हूं।' "आप स्वयं कौन हैं? इस शहर में आप अकेले ही क्यों दिख पड़ते हैं? यह शहर ऋद्धि सिद्धि से पूर्ण होने पर भी मनुष्यों से शून्य क्यों है? और इस नगर का नाम क्या है! पथिक के ऐसे विनय भरे वचन सुनकर खुश हो वह कहने लगा "हे भद्र! यह कुशवर्धन नामक शहर है । वीरपुरुषों में अग्रेसर शूर नामक राजा यहाँ राज्य करता था । उसके जयचंद्र और विजयचंद्र नाम के हम दो पुत्र थे। आयुष्य पूर्ण होने पर मेरे पिता इस फानी दुनिया को त्याग कर देवलोक में जा
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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