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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र आगन्तुक - युवक भी हिल डुल नहीं सके । परंतु स्तंभ की माफक स्थिर हो वे दोनों खड़े ही रह गये । थोड़े ही समय में उन दोनों की सन्धियें टूटने लगीं । इससे पीड़ा के कारण वे जोर से चिल्लाने लगे । मूर्ख लोग किसी भी काम को करते समय जरा भी सोच विचार नहीं करते, पामर जीवों का यही लक्षण है। इस संसार में अज्ञानी जीव कर्म करते समय आगामी परिणाम का बिलकुल खयाल नहीं करते, वे वर्तमान काल को ही देखते हैं । परंतु वर्तमान में किये हुए पापकर्मों का जब कड़वा फल भोगना पड़ता है तब उससे छुटकारा पाने की वे अनेक विध कोशिश करते हैं और छुटकारा न पाने से दयाजनक आर्त स्वर से रुदन करते हैं। प्राणी जिस प्रकार के परिणाम से जो कर्म बांधता है उसका विपाकोदय आने पर वैसा ही मंद या तीव्र फल अवश्य भोगना पड़ता है । इसीलिए दुःख से उकताने वाले मनुष्यों को या दुःख को न पसंद करने वाले मनुष्यों को कर्म करते समय ही सावधान रहना चाहिए । जिससे कि उन्हें कड़वा फल भोगने का समय न आवे । विश्वासघात महा पाप है और विश्वासघात करने वाले अधोगति में जाकर भयंकर कष्ट भोगते हैं । इन वणिकों को अपने किये हुए विश्वासघात - पाप करने का इस वक्त पश्चात्ताप हुआ। परंतु समय बीते बाद कर्म का परिणाम उदय होने पर पश्चात्ताप करना बेकार होता है । इस समय वह युवा पुरुष निःस्पृह मनुष्य के समान अपनी धरोहर की आशा छोड़कर बहुत दूर निकल गया था। यह बात शहर के बड़े-बड़े हिस्सों में फैल गयी । जगह - जगह इस बात की चर्चा होने लगी और नगर के विचारशील मनुष्य उन दोनों भाइयों को फिटकारने लगे । बहुत से मनुष्य यह समझकर कि उग्र कर्म का फल इसी भव में मिल जाता है, ऐसे घोर अकृत्यों का परित्याग करने लगे। इस समय लोभाकर का पुत्र गुणवर्मा किसी कार्य के लिए कितने एक दिन से शहर से बाहर किसी गांव को गया हुआ था। किसी मनुष्य के द्वारा इस बात को सुनकर वह शीघ्र ही घर आया। अपने पिता व चाचा की ऐसी अधम दशा देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ । गुणवर्मा उदार दिल, निर्लोभी और विचारशील युवक था । लोगों में होने वाली इस कृति की निन्दा उससे सहन
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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