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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र निर्वासित जीवन उनका आदर सत्कार किया । कुमार बोला - ज्ञानी महाशय! आपका कहना बिल्कुल सच है, सुभटों ने भी उसे जीवित ही छोड़ दिया है । (फिर पिता की तरफ देख) पिताजी! जिस जगह सुभटों ने उसे जंगल में छोड़ दिया था वहां जाकर तलाश तो करें । राजपुरुषों को भेजकर चंद्रावती में भी खबर करायें, न जाने हमारे पुण्योदय से वह किसी तरह अपने पिता के वहां पहुंच गयी हो । कुमार के कहने से राजा ने जगह - जगह राजपुरुषों को भेजकर मलयासुंदरी की शोध कराना शुरू कर दिया । राजा ने कुमार को समझा बुझाकर भोजन कराया और खुद ने भी भोजन किया। मलयासुंदरी की खोज में भेजे हुए राजपुरुष कुछ समय के बाद जहां तहां ढूंढकर वापिस आने लगे और उसके न मिलने का समाचार देने लगे। उनके समाचार से कुमार की आशा निराशा में परिवर्तित हो गयी । वह अपनी प्रिया के संबंध में नाना प्रकार की कल्पनायें करने लगा। युद्ध में जाते समय प्रेम भरे शब्दों से साथ चलने की उसकी प्रार्थना को यादकर विशेष दुःखित होने लगा ।वह मन ही मन उसे समक्ष समझकर कहने लगा - प्यारी! राजमहल के उत्तम सुख का थोड़ा सा अनुभवकर अब तूं दुःख के अगाध समुद्र में जा पड़ी । प्रिये! ऐसे घोर दुःखों का अनुभव तूं किस तरह करती होगी? इन्हीं विचारों से महाबल को किसी भी जगह चैन न पड़ती थी । सूक्ष्म ज्वरवाले रोगी के समान अपनी प्रिया के वियोग से उसे खाना पीना बिल्कुल अच्छा न लगता था । उसने निरुपाय होकर एक रोज यह निश्चय किया "जब उस अष्टांगनिमित्तज्ञ ज्ञानी ने यह बतलाया है कि एक वर्ष के बाद वह मुझे जीवित मिलेगी तब मुझे स्वयं क्यों न उसकी तलाश करनी चाहिए? उसके बगैर मेरा अब यहां पर क्या रखा है? यदि वह एक वर्ष पर्यन्त ढूढने पर भी न मिली तो मुझे यहां न आकर स्वयं भी उसके वियोग में प्राणत्याग कर देना चाहिए । यह निश्चयकर एक रोज रात के समय किसी को मालूम न हो इस प्रकार हाथ में तलवार ले वह अपने शहर से निकल गया । अब यह भयानक जंगलों, बस्ती और ग्रामों में मलयासुंदरी की शोध करता हुआ भूख प्यास सहनकर, निद्रा को त्यागकर भिखारी के समान फिरने 155
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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