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________________ १५८ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। यतिस्त्यागी मुनियोंगी, महात्मा साधुरुच्यते । सुचिह्नः सैव भो'धर्म-समाजोद्धारकोऽपि च ॥६०४॥ प्रतिवर्षे चतुर्मास्या-मेकान्तरोपवासकैः । षष्ठैः प्रतिचतुर्मास्यां, दीपावल्यां तथैव च ॥ ६०५ ॥ आचाम्लैकाशनाद्यैर्यः, षट्पर्वतिथिषु स्फुटम् । दशम्यां वार्षिके चापि, सत्पर्वणि सदाऽष्टमैः ॥६०६॥ तपोभिश्चेदृशैः सद्भिः, श्रद्धया स्वात्मनिश्चितैः । प्रायेणाऽऽराधनांचक्रे, सत्तिथीनां सहाऽऽदरैः॥६०७॥ वाचकवृन्द ! इन सुन्दर लक्षणोंसे जो युक्त है वही यति, त्यागी, मुनि, योगी, महात्मा, साधु, और जैनधर्म व जैनसमाजके उद्धार करने वाले हो सकते हैं ।। ६०४ ॥ हरसालके चौमासेमें दो मास तक एकान्तर उपवास करने, तीनों चौमासा की चौदश पूनम और दिवालीके रोज छठ तप करने, निरन्तर छः पर्वतिथिकी तिथिओंमें एवं दशमीके दिन भी आंबिल एकाशनादिकों और वार्षिक-संवत्सरी पर्वमें अट्ठम तपसे, अतिश्रद्धा पूर्वक अपने आत्माके निश्चयों के साथ इस प्रकारके उत्तम तपोंसे उक्त तिथियोंकी सादर गुरुश्रीने आराधना की ६०५-६०६-६०७ ॥ तपोभिर्वायुवेगैश्चा-प्रतिबद्धविहारकैः । सद्ज्ञानध्यानमौनाद्यैः, प्रत्यक्षानुभवैः कृतः ॥६०८॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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