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________________ २२० वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा सुगन्ध आने लगी। क्रम-क्रम से मैं उसके मुँह में गोलियाँ रखता चला गया और इस प्रकार वह पूर्णतः सुगन्धमुखी हो गई।" (रक्तवतीलम्भ : पृ. २१८) भावमिश्र ने भी मुख की दुर्गन्ध दूर करने का एक नुस्खा दिया है : काला जीरा, इन्द्रजौ और कूठ को चबाने से तीन दिन में मुख की दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है । किन्तु वसुदेवजी का नुस्खा राजोचित प्रतीत होता है और वह गोली बिलकुलं आयुर्वेदोक्त गन्धद्रव्य से ही, घी में खरल कर नलीयन्त्र के द्वारा तैयार की गई है । इससे गन्ध केवल दूर ही नहीं होती, अपितु वह कमल की सुगन्ध में बदल जाती है। - इसके अतिरिक्त, संघदासगणी ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध पंचकर्मों में वमन-विरेचन (कथोत्पत्ति : पृ. १३) की चर्चा की है; दवा के खरल करने और उसमें भावना देने (रक्तवतीलम्भ : पृ. २१८) आदि का भी उल्लेख किया है; शतपाकतैल से अभ्यंग (नीलयशालम्भ : पृ. १७७) करने की बात भी आई है। साथ ही, आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों में त्रिफला का रस (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८९), गोशीर्षचन्दन, अरणी (नीलयशालम्भ : पृ. १६०), प्रियंगु (तत्रैव : पृ. १६१), तुम्बरुचूर्ण (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४८), शिलाजतु (कथोत्पत्ति : पृ. ६) आदि को भी कथाव्याज से उपन्यस्त किया है। यहाँतक कि नवजात शिशु को घूटी (पीठक) पिलाने की विधि की ओर भी कथाकार की दृष्टि गई है (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५२) । कथाकार-प्रोक्त सरद-गरम की विरुद्ध स्थिति में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने का भी एक प्रसंग द्रष्टव्य है : मित्र के साथ चारुदत्त नदीतट पर बैठा था। तभी, मरुभूति ने नदी में उतरकर गोमुख से कहा : “तुम भी उतरो, क्यों देर कर रहे हो?” तब गोमुख बोला : “चिकित्सकों ने कहा है कि रास्ता चलकर सहसा पानी में नहीं उतरना चाहिए। तलवे की दो शिराएँ ऊपर जाकर गले से जुड़ती हैं। वहीं दो नेत्रगामिनी शिराएँ हैं। इन शिराओं को विकृत होने से बचाने के लिए गरमी से सन्तप्त शरीरवाले को पानी में उतरना निषिद्ध है। यदि कोई उतरता है, तो सरद-गरम की विरुद्ध स्थिति में वह कुबड़ेपन अथवा अन्धेपन का शिकार हो जाता है । इसलिए, थोड़ा विश्राम करके पानी में उतरना उचित है।" शारीरविज्ञान के आधार पर सरद-गरम की विरुद्ध स्थिति में उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट रोगों की उत्पत्ति का यह विवेचन संघदासगणी की विलक्षण और विस्मयकारी आयुर्वेदज्ञता का द्योतक है। इस प्रकार, निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में आयुर्वेद-विद्या के विभिन्न लौकिक और शास्त्रीय आयामों को यथाप्रसंग उपस्थापित करके अपनी आयुर्वेदमर्मज्ञता सिद्ध की है। कहना न होगा, संघदासगणी ने अपने समय के आयुर्वेद-जगत् की ऐसी विशिष्ट बानगी प्रस्तुत की है, जिसका भारत के चिकित्साशास्त्र के इतिहास के लिए अतिशय महत्त्व है। तीसरी-चौथी शती के अनन्तर भी आयुर्वेद-क्षेत्र में कितने ही महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते गये, जिनके तुलनात्मक अध्ययन में 'वसुदेवहिण्डी' के आयुर्वेदिक प्रसंग अपना ततोऽधिक मूल्य रखते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से उनका अध्ययन भारतीय स्वर्णकाल के आयुर्वेदिक इतिहास पर नया प्रकाश डाल सकता है। ___ इसके अतिरिक्त, संघदासगणी ने हाथियों, घोड़ों और गायों की जिस मानसिक और शारीरिक स्थिति का चित्रण किया है, उससे उनके, आयुर्वेद के उपांग, हस्त्यायुर्वेद, अश्वायुर्वेद और गवायुर्वेद के तत्त्वज्ञ होने का भी स्पष्ट संकेत मिलता है।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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