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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २१९ चर्चा हुई है। सोना पाँच प्रकार का होता है : प्राकृत, सहज, वह्नि से उत्पन्न, खनिज और रसेन्द्र (पारद) के वेध (स्वेदन आदि) से उत्पन्न । प्राकृत सुवर्ण, जिससे ब्रह्माजी ने सुवर्णमय ब्रह्माण्ड का निर्माण किया था, देवों के लिए भी दुर्लभ है। पारद के वेधनकर्म से उत्पन्न सुवर्ण 'रसेन्द्रवेध-संजात' कहलाता है। रसरत्नसमुच्चयकार ने प्रत्येक खनिज धातु को 'लोह' शब्द से अभिहित किया है। लोह तीन प्रकार के हैं : शुद्ध लोह, पूतिलोह और मिश्रलोह । सोना, चाँदी, ताँबा और लोहा, ये चार शुद्ध लोह हैं; राँगा और सीसा, ये दोनों पूतिलोह हैं तथा पीतल, काँसा और रुक्मलोह, ये तीनों मिश्रलोह हैं। इस प्रकार, लोहा और सोना, दोनों के एक ही वर्ग के होने के कारण लोहा से सोना बनना सहज ही सम्भव है। आज भले ही लोहे से सोना बनाने की विधि और सामग्री दुष्प्राप्य हो गई है, किन्तु प्राचीन भारत में इसकी सम्भाव्यता थी। यद्यपि उस युग में भी यह कार्य सर्वजनीन नहीं हो पाया और आयुर्वेद-विद्या से अधिक तन्त्रविद्या का विषय बनकर नामशेष हो गया। भारतीय रसायनतन्त्र के इतिहास में लोहे से सोना बनानेवाले नागार्जुन के अतिरिक्त और भी अनेक रसायनाचार्य के नाम सुरक्षित हैं, जिनमें आदिम, चन्द्रसेन, लंकेश, विशारद कपाली, मत्तमाण्डव्य, भास्कर, सूरसेन, रत्नकोश, शम्भु, सात्त्विक, नरवाहन, इन्द्रद, गोमुख, कम्बलि, व्याडि सुरानन्द नागबोधि, यशोधन, खण्ड कापालिक, ब्रह्मा, गोविन्द लम्पक (ट) और हरि के नाम मूर्धन्य हैं। इन आचार्यों द्वारा रचित अनेक रसतन्त्र और रससंहिताएँ भी हैं, जिनमें 'दत्तात्रेयसंहिता,' 'रुद्रयामलतन्त्र', 'कामधेनुतन्त्र', 'काकचण्डीश्वरतन्त्र', 'नागार्जुनतन्त्र', 'स्वच्छन्दभैरवतन्त्र', 'मन्थानभैरवतन्त्र', 'रसपारिजात' आदि उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार, भारतवर्ष में रसायनाचार्यों की चमत्कारी रसनिर्माण-प्रक्रिया की एक परिपुष्ट परम्परा रही है। आश्चर्य नहीं कि वे ऐसे रस भी तैयार कर सकते थे, जिससे लोहा सोना बन जाता था। 'वसुदेवहिण्डी' की प्रस्तुत कथा में संघदासगणी ने कथाच्छल से लोहे से सोना बनाने की प्रक्रिया का उल्लेख करके भारतीय रसायनतन्त्र की महती मल्यवती परम्परा की ओर ही संकेत किया है। - उपरिविवेचित आयुर्वेदिक तत्त्वों के अतिरिक्त और भी तद्विषयक कतिपय स्फुट प्रसंग 'वसुदेवहिण्डी' में उपलब्ध होते हैं। जैसे : वसुदेव ने लशुनिका नाम की दासी के मुँह की बदबू को दूर करने के लिए दुर्गन्धनाशक गोली तैयार की थी। वसुदेव के शब्दों में ही यह कथाप्रसंग प्रस्तुत है : मैं उस रूपवती नौकरानी से कुछ पूछता था, तो वह मुँह घुमाकर उत्तर देती थी। मैंने कहा : “बालिके ! मुँह घुमाकर क्यों बात करती हो? क्या तुम विवेकहीन हो?" वह बोली : “मेरे मुँह से लहसुन की गन्ध आती है, इसलिए यह जानकर भी आपकी ओर मुँह करके कैसे बै?" मैंने कहा : “दुःखी मत हो। मैं गन्धद्रव्य के योग से तुम्हारे गले के श्वास की दुर्गन्ध को दूर कर दूंगा। मैं जिन वस्तुओं को कहता हूँ, उन्हें ले आओ।" वह सभी सामग्री ले आई। मैंने सभी द्रव्यों को घी में मिलाकर खरल किया और उन्हें नलीयन्त्र में भर दिया। उसके बाद उनसे गोलियाँ बनाईं। उन गोलियों के प्रयोग से बदबू दूर हो गई और लशुनिका के मुँह से कमल की तरह १. प्राकृतं सहजं वह्निसम्भूतं खनिसम्भवम्। रसेन्द्रवेधसञ्जातं स्वर्ण पञ्चविधं स्मृतम् ॥-रसरलसमुच्चय,५.२ २. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्यः रसरत्नसमुच्चय, सुरलोज्ज्वला भाषाटीका, चौखम्बा-संस्करण, भूमिका, पृ.२
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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