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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २२१ धम्मिल्लहिण्डी की धनश्री - कथा का विनीतक (समुद्रदत्त) तो कामशास्त्रोक्त चौंसठ कलाओं में अन्यतम वृक्षायुर्वेद में भी कुशल था। तभी तो, उसने कुछ ही दिनों में धन सार्थवाह के आराम को सर्वऋतुसुलभ फूलों और फलों से समृद्ध कर दिया ("ततो सो रुक्खायुव्वेयकुसलो तं आरामं कइवएहिं दिवसेहिं सव्वोउयपुण्फफलसमिद्धं करेइ"; ५०) । प्राचीन भारतीय स्वर्णयुग पुरुषार्थप्रधान राजाओं और न्यायप्रधान. राजदरबारों का युग था । हाथी, घोड़े, गाय-भैंस आदि उनके अमूल्य अनिवार्य उपकरण या पशुधन के रूप में सुरक्षित रहते थे, इसलिए उनके स्वास्थ्य की देखभाल की स्वतन्त्र व्यवस्था भी अनिवार्यत: रहती थी । आधुनिक राजतन्त्र की समाप्ति और पशुधन के ह्रास के युग में भी पशु-चिकित्सालयों की उपस्थिति प्राक्कालीन अष्टांग आयुर्वेदशास्त्र के व्यापक विकास और उसके महान् लक्ष्य प्राणिमात्र की कल्याणभावना को ही प्रतीकित करती है । (ग) धनुर्वेद-विद्या भारतीय प्राच्यविद्या में धनुर्वेद या धनुर्विद्या सम्पूर्ण आयुधवेद या आयुधविद्या के लिए प्रयुक्त हुआ है। धनुर्वेद की अतिरुचिर उत्पत्ति-कथा लिखते हुए संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में धनुर्वेद को आयुधवेद भी कहा है। कथा इस प्रकार है : इस भरतक्षेत्र में, मिथुन-धर्म के 'अवसान-काल में कुलकरों द्वारा प्रवर्त्तित हाकार, माकार और धिक्कार की दण्डनीति का लोग जब उल्लंघन करने लगे, तब मिथुनों सहित देवों ने नाभिपुत्र ऋषभश्री को प्रथम राजा के रूप में गद्दी पर बैठाया। उस समय के मनुष्य प्रकृत्या भद्र और नम्र होते थे और स्वभावत: उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ कम हुआ करते थे। उस समय अस्त्र की कोई आवश्यकता नहीं होती थी । जब ऋषभस्वामी के प्रथम पुत्र भरत समस्त भारतवर्ष के राजा हुए और उन्हें चौदह रत्न और नौ निधियों का स्वामित्व प्राप्त हुआ, तब 'मानव' नामक निधि ने उनको व्यूह-रचना तथा अस्त्र-शस्त्र एवं कवच के निर्माण का उपदेश किया। कालान्तर में कठोरहृदय राजाओं और अमात्यों ने अपनी मति से विभिन्न शस्त्रों की रचना की और उनके प्रयोग की पद्धति का भी प्रचार किया । विद्वानों ने अस्त्रशस्त्र - विद्या से सम्बद्ध अनेक शास्त्रों की रचनाएँ कीं। इसी क्रम में अस्त्रों, अपास्त्रों और व्यस्त्रों का प्रचार हुआ तथा आयुधवेद एवं संग्राम के योग्य मन्त्रों के भी प्रयोग प्रारम्भ हुए (पद्मालम्भ: पृ. २०२) । श्रामण्य-परम्परा - प्रोक्त अस्त्रविद्या की यह आवर्जक उत्पत्ति-कथा ब्राह्मण- परम्परा के सन्दर्भ में विवेच्य है । किसी निश्चित लक्ष्य पर धनुष की सहायता से बाण चलाने की कला को धनुर्विद्या (आर्चरी) कहते हैं । धनुर्विद्या का जन्मस्थान अनुमान का विषय है। लेकिन, ऐतिहासिक सूत्रों से सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग पूर्वदेशों में बहुत प्राचीन काल से होता था । सम्भव है, भारत से ही यह विद्या ईरान होते हुए यूनान और अरब देशों में पहुँची थी। भारतीय सैन्यविज्ञान या अस्त्रविद्या का नाम 'धनुर्वेद' होना सिद्ध करता है कि वैदिक काल से ही प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी । संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र साथ ही धनुर्बाण का उल्लेख मिलता है । 'कौशीतकिब्राह्मण' में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है । जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है ।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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